पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 2.djvu/१४९

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सिंहासन के ऊपर छोटा-सा पत्थर का एक सन्दूक था, जिसके छूने से आदमी बेहोश हो जाता था।

मैं––हाँ, यह किस्सा आप पहले भी मुझसे कह चुके हैं, बल्कि आपने यह भी कहा कि सिंहासन के ऊपर जो पत्थर था और जिसके छूने से आदमी बेहोश हो जाता था, वास्तव में वह एक सन्दूक था और उसके अन्दर से कोई नायाब चीज राजा वीरेन्द्र- सिंह को मिली थी।

बाप––ठीक है, ठीक है, इस समय मेरी अक्ल ठिकाने नहीं है, इसी से बहुत-सी बातें भूल रहा हूँ, हाँ तो उसी पत्थर के टुकड़े में से जिसे छोटा सन्दूक कहना चाहिए यह किताब और हीरे का एक सरपेंच निकला था।

मैं––उस किताब में क्या बात लिखी है?

बाप––उस किताब में उस तिलिस्म के भेद लिखे हुए हैं जो राजा वीरेन्द्रसिंह के हाथ से न टूट सका और जिसके विषय में मशहूर है कि राजा वीरेन्द्रसिंह के लड़के उस तिलिस्म को तोड़ेंगे।

मैं––यदि उस पुस्तक में उस भारी तिलिस्म के भेद लिखे हुए थे, तो राजा वीरेन्द्रसिंह ने उस तिलिस्म को क्यों छोड़ दिया?

बाप––केवल उस किताब की सहायता से ही यह तिलिस्म नहीं टूट सकता। हाँ, जिसके पास वह पुस्तक हो, उसे उस तिलिस्म का कुछ हाल जरूर मालूम हो सकता है और यदि वह चाहे तो तिलिस्म में जाकर वहाँ की सैर भी कर सकता है। इस कम्बख्त औरत ने यही कहा कि मुझे तिलिस्म की सैर करा दो। उसी जिद ने मुझसे यह अपराध कराया, लाचार मैंने वह किताब चुराई। मैंने सोच लिया था कि इसकी इच्छा पूरी करने के बाद मैं वह पुस्तक जहाँ की तहाँ रख आऊँगा, मगर जब यह औरत कोई दूसरी ही है तो बेशक मुझे धोखा दिया गया है तथा इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि यह औरत उस तिलिस्म से कोई सम्बन्ध रखती है और यदि ऐसा है तो अब उस पुस्तक का मिलना मुश्किल है। अफसोस, जब मैं किताब चुराकर राजा वीरेन्द्रसिंह के शीशमहल से बाहर निकल रहा था तो उनके एक ऐयार ने मुझे देख लिया था। मैं मुश्किल से निकल भागा और यह सोचे हुए था कि यदि मैं पुस्तक फिर वहीं रख आऊँगा तो फिर मेरी खोज न होगी, मगर हाय, यहाँ तो कोई दूसरा ही रंग निकला।

मैं––आपने उस पुस्तक को पढ़ा था?

बाप––(आँखों में आँसू भरकर) उसका पहला पृष्ठ देख सका था, जिसमें इतना ही लिखा था कि जिसके कब्जे में यह पुस्तक रहेगी, उसे तिलिस्मी आदमियों के हाथ से दुःख नहीं पहुँच सकता। जो हो परन्तु अब इन बातों का समय नहीं है, यदि हो सके तो उस औरत के हाथ से किताब ले लेना चाहिए, उठो और मेरे साथ चलो।

इतना कहकर मेरा बाप उठा, मकान के अन्दर चला, मैं भी उसके पीछे-पीछे था। अन्दर से मकान का दरवाजा बन्द कर लिया गया, मगर जब मेरा बाप ऊपर के कमरे में जाने लगा जहाँ मेरी माँ रहा करती थी, तो मुझे सीढ़ी के नीचे खड़ा कर गया और कहता गया कि देखो जब मैं पुकारूँ तो तुरन्त चले आना।