सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 2.djvu/१७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
174
 

दोनों औरतें उस सुरंग में घुसी। दो सौ कदम के लगभग जाने के बाद वह सुरंग खत्म हुई और ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ नजर आई। दोनों औरतें ऊपर चढ़कर एक कोठरी में पहुँची जिसका दरवाजा खुला हुआ था। कोठरी के बाहर निकल कर धनपत और मायारानी ने अपने को बाग के चौथे हिस्से में पाया। इस बाग का पूरा-पूरा नक्शा हम आगे चल कर खींचेंगे यहाँ केवल मायारानी की कार्रवाई का हाल लिखते है।

कोठरी से आठ-दस कदम की दूरी पर पक्का मगर सूखा कुआँ था जिसके अन्दर लोहे की एक मोटी जंजीर लटक रही थी। कुएँ के ऊपर डोल और रस्सा पड़ा था। डोल में लालटेन रख कर कुएँ के अन्दर ढीला और जब वह तह में पहुँच गया तो दोनों औरतें जंजीर थाम कर कुएँ के अन्दर उतर गईं। नीचे कुएँ की दीवार के साथ छोटा-सा दरवाजा था जिसे खोल कर धनपत को पीछे आने का इशारा करके मायारानी हाथ में लालटेन लिये हुए अन्दर घुसी। वहां पर छोटी-छोटी कई कोठरियाँ थीं। निचली कोठरी में, जिसके आगे लोहे का जंगला लगा हुआ था, एक आदमी हाथ में फौलादी ढाल लिए टहलता हुआ दिखाई पड़ा। यहां बिल्कुल अँधेरा था मगर मायारानी के हाथ वाली लालटेन ने उस कोठरी की हर एक चीज और उस आदमी की सूरत बखूबी दिखा दी। इस समय उस आदमी की उम्र का अन्दाज करना मुश्किल है क्योंकि रंज और गम ने उसे सुखा कर काँटा कर दिया है, बड़ी-बड़ी आँखों के चारों तरफ स्याही दौड़ गई है और उसके चेहरे पर झुर्रियां पड़ी हुई हैं, तो भी हर एक हालत पर ध्यान देकर कह सकते हैं कि वह किसी जमाने में पहुत ही हसीन और नाजुक रहा होगा मगर इस समय कैद ने उसे मुर्दा बना रक्खा है। उसके बदन के कपड़े बिल्कुल फटे और मैले थे और वह बहुत ही मजहूल हो रहा था। कोठरी के एक तरफ ताँबे का घड़ा, लोटा और कुछ खाने का सामान रक्खा हुआ था, ओढ़ने और विछाने के लिए दो कम्बल थे। कोठरी की पिछली दीवार में खिड़की थी जिसके अन्दर से वदवू आ रही थी।

मायारानी और धनपत को देख कर वह आदमी ठहर गया और इस अवस्था में भी लाल-लाल जाँखें करके उन दोनों की तरफ देखने लगा।

मायाननी––यह आखिरी दफे मैं तेरे पास आई हूँ।

कैदी––ईश्वर करे ऐसा ही हो और फिर तेरी सूरत दिखाई न दे।

मालारानी––अब भी अगर वह भेद मुझे बता दे तो तुझे छोड़ दूँगी।

दो––हरामजादी कमीनी औरत, दूर हो मेरे सामने से!

मायारानी––मालूम होता है वह भेद तू अपने साथ ले जायगा?

कैदी––बेशक ऐसा ही है।

मायारानी––यह ढाल तेरे हाथ में में कहाँ से आई?

कैदी––तुझ चाण्डालिन की इस बात का जवाब मैं क्यों दूँ?

मायारानी––मालूम होता है कि तुझे अपनी जान प्यारी नहीं है और अब तू मौत के पंजे में पड़ना चाहता है!

कैदी––बेशक पहले मुझे अपनी जान प्यारी न थी, पाँच दिन पीछे भोजन करना मुझे पसन्द न था, कभी-कभी तेरी सूरत देखने की बनिम्बत मौत को हजार दर्जे अच्छा