समझता था, मगर अब मैं मरने के लिए तैयार नहीं हूँ।
मायारानी––(हँस कर) तुझे मेरे हाथ से बचाने वाला कौन है?
कैदी––(ढाल दिखा कर) यह!
धनपत––(मायारानी के कान में) न मालूम यह ढाल इसे क्योंकर मिल गई! क्या चण्डूल यहाँ तो नहीं पहुँच गया?
मायारानी––(धनपत से) कुछ समझ में नहीं आता। यह ढाल भविष्य बुरा बता रही है।
धनपत––मेरा कलेजा डर के मारे काँप रहा है।
मायारानी––(कैदी से) यह तुझे किसी तरह बचा नहीं सकती और मैं तेरी जान लिए बिना जा नहीं सकती।
कैदी––खैर, जो कुछ तू कर सके, कर ले।
मायारानी––तू जिद्दी और बेहया है।
कैदी––हरामजादी की बच्ची, बेहया तो तू है जो घड़ी-घड़ी के बाद मेरे सामने आती है।
इस बात के जवाब में मायारानी ने एक तीर कैदी को मारा, जिसे उसने बडी चालाकी से ढाल पर रोक लिया, दूसरा तीर चलाया, वह भी बेकार हुआ, तीसरा तीर चलाया, उससे भी कोई काम न चला। लाचार मायारानी कैदी का मुंह देखने लगी।
कैदी––तेरे किए अब कुछ भी न होगा।
मायारानी––खैर, देखूगी, तू कब तक अपनी जान बचाता है।
कैदी––मेरी जान कोई भी नहीं ले सकता, बल्कि मुझे निश्चय हो गया कि अब तेरी मौत आ गई।
इसका जवाब मायारानी कुछ देना ही चाहती थी कि एक आवाज ने उसे चौंका दिया। कैदी की बात पूरी होने के साथ ही किसी ने कहा, "बेशक मायारानी की मौत आ गई!"
2
कैदखाने का हाल हम ऊपर लिख चुके हैं, पुनः लिखने की कोई आवश्यकता नहीं। उस कैदखाने में कई कोठरियाँ थीं जिनमें से आठ कोठरियों में तो हमारे बहादर लोग कैद थे और बाकी कोठरियाँ खाली थीं। कोई आश्चर्य नहीं, यदि हमारे पाठक महाशय उन बहादुरों के नाम भूल गये हों जो इस समय मायारानी के कैदखाने में बेबस पड़े हैं अस्तु एक दफे पुनः याद दिला देते हैं। उस कैदखाने में कुंअर इन्द्रजीतसिंह, अर आनन्दसिंह, तारासिंह, भैरोंसिंह, देवीसिंह और शेरसिंह के अतिरिक्त एक कुमारी भी थी जिसके मुख की सुन्दर आभा ने उस कैदखाने में उजाला कर रखा था। पाठक