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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 2.djvu/१७७

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सभी को देखते-देखते कामिनी को साथ लिए हुए मायारानी का आदमी कैदखाने के बाहर चला गया और कैदखाने का दरवाजा फिर बन्द हो गया। ताली भरने की आवाज भी बहादुर कैदियों के कानों में पड़ी। यों तो वहाँ जितने कैदी थे, सभी क्रोध के मारे काँप रहे थे, मगर हमारे आनन्दसिंह की अवस्था कुछ और ही थी। एक तो अपने मां-बाप का हाल सुनकर जोश में आ ही चुके थे, दूसरे कामिनी को जो इस बेबसी के साथ कैदखाने के बाहर जाते देखा, और भी उबल पड़े, क्रोध सम्हाल न सके, उठके खड़े हो गए और जंगले वाली कोठरी में जिसमें कैद थे टहलने लगे। जिस जंगले वाली कोठरी में कुँअर इन्द्रजीतसिंह थे, वह आनन्दसिंह के ठीक सामने थी और ऐयार लोग भी उन्हें अच्छी तरह देख सकते थे। टहलने के साथ आनन्दसिंह के पैर की जंजीर बोली, जिससे सभी का ध्यान उनकी तरफ जा रहा।

इन्द्रजीतसिंह––आनन्द!

आनन्दसिंह––आज्ञा!

इन्द्रजीतसिंह––क्या बेबसी हम लोगों का साथ न छोड़ेगी?

आनन्दसिंह––बेशक छोड़ेगी, अब हम लोग इस अवस्था में कदापि नहीं रह सकते। हम लोग जंगली शेर नहीं हैं जो जंगले के अन्दर बन्द पड़े रहें।

इन्द्रजीतसिंह––(खड़े होकर) हाँ, ऐसा ही है, यह लोहे की तार अब हमें रोक नहीं सकती!

इतना कह के इन्द्रजीतसिंह ने इष्टदेव का ध्यान कर अपनी कलाई उमेठी, और जोर करके हथकड़ी तोड़ डाली। बड़े भाई की देखादेखी आनन्दसिंह ने भी वैसा ही किया। हथकड़ी तोड़ने के बाद दोनों ने अपने पैरों की बेड़ियाँ खोली, और तब जंगले के बाहर निकलने का उद्योग करने लगे। दोनों हाथों से लोहे का छड़ जो जंगले में लगा हुआ था पकड़ के और लात अड़ा के खींचने लगे। इसमें कोई सन्देह नहीं कि दोनों कुमार बड़े बहादुर और ताकतवर। छड़ टेढ़े हो-हो कर छेदों से बाहर निकलने लगे और बात-की-बात में दोनों शेर जंगले वाली कोठरी के बाहर निकल के खड़े हो गये दोनों गले मिले, और इसके बाद हर एक जंगले के छड़ों को निकालकर दोनों भाइयों ने अपने ऐयारों को भी छुड़ाया, और जोश में आकर बोले, "उद्योग से बढ़ के दुनिया में कोई पदार्थ नहीं!"

आनन्दसिंह––ईश्वर चाहेगा तो अब थोड़ी देर में हम लोग इस कैदखाने के बाहर भी निकल जायँगे।

इन्द्रजीतसिंह––हाँ, अब हम लोगों को इसके लिए भी उद्योग करना चाहिए।

भैरोंसिंह––हम लोग जोर करके तहखाने का दरवाजा उखाड़ डालेंगे, और इसी समय कम्बख्त मायारानी के सामने जा खड़े होंगे।

ऐयारों को साथ लिए हुए दोनों भाई सदर दरवाजे के पास गये जो बाहर से बन्द था। यह दरवाजा चार अंगुल मोटे लोहे का बना था और इसकी मजबूत चूल भी जमीन में बहुत गहरी घुसी हुई थी। इसलिए पूरे दो घण्टे तक मेहनत करने पर भी कोई नतीजा न निकला। क्रोध में आकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने लोहे का छड़, जो