पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 2.djvu/१८६

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काम करना है, शायद कभी दुश्मनों के...

आनन्दसिंह––नहीं-नहीं, यह खंजर, जो तुम्हारे पास रह गया है, लेकर मैं तुम्हें खतरे में नहीं डाल सकता, कल-परसों या दस दिन में जब मौका हो तब मुझे देना।

कमलिनी––जरूर दूँगी, अच्छा अब यहाँ से चलना चाहिए।

दोनों कुमारों और ऐयारों को साथ लिये हुए कमलिनी वहाँ से रवाना हुई और उस ठिकाने पहुँची जहाँ वह शैतान बेहोश पड़ा हुआ था जिसने कन्दील बुझा कर कुमार को जख्मी किया था। चेहरे पर से नकाब हटाते ही कमलिनी चौंकी और बोली, "हैं, यह तो कोई दूसरा ही है! मैं समझे हुए थी कि दारोगा, किसी तरह राजा वीरेन्द्रसिंह की कैद से छूट कर आ गया होगा, मगर इसे तो मैं बिल्कुल नहीं पहचानती। (कुछ रुक कर) उसने मेरे साथ दगा तो नहीं की कौन ठिकाना, ऐसे आदमी का विश्वास न करना चाहिए, मगर मैंने तो उसके साथ..."

ऊपर लिखी बातें कह कमलिनी चुप हो गई और थोड़ी देर तक किसी गम्भीर चिन्ता में डूबी-सी दिखाई पड़ी। आखिर कुँअर इन्द्रजीतसिंह से रहा न गया, धीरे से कमलिनी की उँगली पकड़ कर बोले––

इन्द्रजीतसिंह––तुन्हें इस अवस्था में देख कर मुझे जान पड़ता है कि शायद कोई नयी मुसीबत आने वाली है जिसके विषय में तुम कुछ सोच रही हो।

कमलिनी––हाँ, ऐसा ही है, मेरे कामों में विघ्न पड़ता दिखाई देता है। अच्छा मर्जी परमेश्वर की! आपके लिए कष्ट उठाना क्या, जान तक देने को तैयार हूँ। (कुछ रुक कर) अब देर करना उचित नहीं, यहाँ से निकल ही जाना चाहिए।

इन्द्रजीतसिंह––क्या मायारानी के अनूठे बाग के बाहर निकलने को कहती हो?

कमलिनी––हाँ।

इन्द्रजीतसिंह––मैं तो सोचे हुए था कि माता-पिता को छुड़ा कर तभी यहाँ से जाऊँगा।

कमलिनी––मैंने भी यही निश्चय किया था, परन्तु अब क्या किया जाय, सब के पहले अपने को बचाना उचित है, यदि आप ही आफत में फँसेंगे तो उन्हें कौन छुड़ायेगा!

इन्द्रजीतसिंह––यहाँ की अद्भुत बातों से मैं अनजान हूँ इसलिए जो कुछ करने को कहोगी करना ही पड़ेगा, नहीं तो मेरी राय तो यहाँ से भागने की न थी, क्योंकि जब मेरे हाथ-पैर खुले हैं और सचेत हूँ तो एक क्या पाँच सौ से भी डर नहीं सकता। जिस पर तुम्हारा दिया हुआ यह अनूठा तिलिस्मी खंजर पाकर तो साक्षात् काल का भी मुकाबला करने से बाज न आऊँगा।

कमलिनी––आपका कहना ठीक है, मैं आपकी बहादुरी को अच्छी तरह जानती हूँ, परन्तु इस समय नीति यही कहती है कि यहाँ से निकल जाओ।

इन्द्रजीतसिंह––अगर ऐसा ही है तो चलो मैं चलता हूँ।(धीरे-से कान में) तुम्हारी बुद्धिमानी पर मुझे डाह होता है।

कमलिनी––(धीरे से) डाह कैसा?

इन्द्रजीतसिंह––(दो कदम आगे ले जाकर) डाह इस बात का कि वह बड़ा ही