मैंने क्या सोचा था और क्या हुआ? क्या बुरे कर्म करके भी कोई सुख भोग सकता है! नहीं नहीं, कभी नहीं, दृष्टान्त के लिए स्वयं मैं मौजूद हूँ!
मायारानी न मालूम और भी क्या-क्या बकती मगर एक आवाज ने उनके प्रलाप में विघ्न डाल दिया और उसके होश-हवास दुरुस्त कर दिए। किसी तरफ से यह आवाज आई––"अब अफसोस करने से क्या होता है, बुरे कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा।"
बहुत-कुछ विचारने और चारों तरफ निगाह दौड़ाने पर भी किसी की समझ में न आया कि बोलने वाला कौन या कहाँ है। डर के मारे सभी के बदन में कँपकँपी पैदा हो गई। मायारानी उठ बैठी और धनपत तथा दोनों ऐयारों को साथ लिए और काँपते हुए कलेजे पर हाथ रखे वहाँ से अपने स्थान अर्थात् बाग के दूसरे दर्जे की तरफ भागी।
4
कमलिनी की आज्ञानुसार बेहोश नागर की गठरी पीठ पर लादे हुए भूतनाथ कमलिनी के उस तिलिस्मी मकान की तरफ रवाना हुआ जो एक तालाब के बीचोंबीच में था। इस समय उसकी चाल तेज थी और वह खुशी के मारे बहुत ही उमंग और लापरवाही के साथ बड़े-बड़े कदम भरता जा रहा था। उसे दो बातों की खुशी थी, एक तो उन कागजों को वह अपने हाथ से जला कर खाक कर चुका था जिनके सबब से वह मनोरमा और नागर के आधीन हो रहा था और जिनका भेद लोगों पर प्रकट होने के डर से अपने को मुर्दे से भी बदतर समझे हुए था। दूसरे, उस तिलिस्मी खञ्जर ने उसका दिमाग आसमान पर चढ़ा दिया था, और ये दोनों बातें कमलिनी की बदौलत उसे मिली थीं, एक तो भूतनाथ पहले ही भारी मक्कार ऐयार और होशियार था, अपनी चालाकी के सामने किसी को कुछ गिनता ही न था, दूसरे आज खंजर का मालिक बन के खुशी के मारे अन्धा हो गया। उसने समझ लिया कि अब न तो उसे किसी का डर है और न किसी की परवाह।
अब हम उसके दूसरे दिन का हाल लिखते हैं जिस दिन भूतनाथ नागर की गठरी पीठ पर लादे कमलिनी के मकान की तरफ रवाना हुआ था। भूतनाथ अपने को लोगों की निगाहों से बचाते हुए आबादी से दूर-दूर जंगल, मैदान, पगडंडी और पेचीले रास्ते पर सफर कर रहा था। दोपहर के समय वह एक छोटी-सी पहाड़ी के नीचे पहुँचा जिसके चारों तरफ मकोय और बेर इत्यादि कँटीले और झाड़ी वाले पेड़ों ने एक प्रकार का हलका-सा जंगल बना रक्खा था। उसी जगह एक छोटा-सा 'चूआ'[१] भी था और
पास ही में जामुन का एक छोटा-सा पेड़ था। थकावट और दोपहर की धूप से व्याकुल
- ↑ 'चूआ'––छोटा सा (हाथ दो हाथ का) खड़ा जिसमें से पहाड़ी पानी धीरे-धीरे दिन-रात बारह महीने निकला करता है।