और सिर के फैले हुए बाल रूई की तरह सफेद हो रहे थे! कमर में केवल एक कौपीन पहने और शेर की खाल ओढ़े वे कमरे के अन्दर आ पहुँचे। उन्हें देखते ही राजा दिग्विजयसिंह उठ खड़े हुए और मुस्कुराते हुए दण्डवत करके बोले, "आज बहुत दिनों के बाद दर्शन हुए हैं, समय टल जाने पर सोचता था कि शायद आज आना न हो!"
बाबाजी ने आशीर्वाद देकर कहा––"राह में एक आदमी से मुलाकात हो गई, इसी से विलम्ब हुआ।"
इस समय कमरे में एक सिंहासन मौजूद था। दिग्विजयसिंह ने उसी सिंहासन पर साधु को बिठाया और स्वयं नीचे फर्श पर बैठ गया। इसके बाद यों बातचीत होने लगी––
साधु––कहो, क्या निश्चय किया?
दिग्विजयसिंह––(हाथ जोड़ कर) किस विषय में?
साधु––यहाँ, वीरेन्द्रसिंह के विषय में।
दिग्विजयसिंह––सिवाय ताबेदारी कबूल करने के और कर ही क्या सकता हूँ?
साधु––सुना है, तुम उन्हें तहखाने की सैर कराना चाहते हो? क्या यह बात सच है?
दिग्विजयसिंह––मैं उन्हें रोक ही कैसे सकता हूँ?
साधु––ऐसा कभी नहीं होना चाहिए। तुम्हें मेरी बातों का कुछ विश्वास है कि नहीं?
दिग्विजयसिंह––विश्वास क्यों न होगा? आपको मैं गुरु के समान मानता हूँ और आज तक जो कुछ मैंने किया, आप ही की सलाह से किया।
साधु––केवल यही आखिरी काम बिना मुझसे राय लिये किया सो उसमें यहाँ तक धोखा खाया कि राज्य से हाथ धो बैठे!
दिग्विजयसिंह––बेशक ऐसा ही हुआ। खैर, अब जो आज्ञा हो, किया जाये।
साधु––मैं नहीं चाहता कि तुम वीरेन्द्रसिंह के ताबेदार बनो। इस समय वे तुम्हारे कब्जे में हैं और तुम उन्हें हर तरह से कैद कर सकते हो।
दिग्विजयसिंह––(कुछ सोच कर) जैसी आज्ञा! परन्तु मेरा लड़का अभी तक उनके कब्जे में है।
साधु––उसे यहाँ लाने के लिए वीरेन्द्रसिंह का आदमी जा ही चुका है, वीरेन्द्र सिंह वगैरह के गिरफ्तार होने की खबर जब तक चुनार पहुँचेगी उसके पहले ही कुमार वहाँ से रवाना हो जायगा। फिर वह उन लोगों के कब्जे में नही फँस सकता, उसको ले आना मेरा जिम्मा।
दिग्विजयसिंह––हरएक बात का विचार कर लीजिए। मैं आपकी अज्ञानुसार चलने को तैयार हूँ।
इसके बाद घण्टे भर तक साधु महाराज और राजा दिग्विजयसिंह में बातें होती रहीं जिन्हें यहाँ लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है। पहर रात रहे बाबाजी वहाँ से बिदा हुए।