पहाड़ी की तराई में है। लगभग आधा कोस जाने के बाद वे दोनों ऐसी जगह पहुँचीं जहाँ चश्मे के दोनों किनारे वाले मौलसिरी[१] के पेड़ झुककर आपस में मिल गये थे और जिसके सबब से चश्मा अच्छी तरह से ढँककर मुसाफिरों का दिल लुभा लेने वाली छटा दिखा रहा था। इस जगह चश्मे के किनारे एक छोटा-सा चबूतरा था जिसकी ऊँचाई पुर्सा भर से कम न होगी। चबूतरे पर एक छोटी-सी पिण्डी इस ढब से बनी हुई थी जिसे देखते ही लोगों को विश्वास हो जाय कि किसी साधु की समाधि है।
इस ठिकाने पर पहुँचकर वे दोनों रुकीं और घोड़े से नीचे उतर पड़ीं। तारा ने अपने घोड़े का असबाब नहीं उतारा अर्थात् उसे कसा-कसाया छोड़ दिया परन्तु कमलिनी ने अपने घोड़े का चारजामा उतार लिया और लगाम उतारकर घोड़े को यों ही छोड़ दिया। घोड़ा पहले तो चश्मे के किनारे आया और पानी पीने के बाद कुछ दूर जाकर सब्ज जमीन पर चरने और खुशी-खुशी घूमने लगा। तारा ने भी अपने घोड़े को पानी पिलाया और बागडोर के सहारे एक पेड़ से बाँध दिया। इसके बाद कमलिनी और तारा चश्मे के किनारे पत्थर की एक बड़ी-सी चट्टान पर बैठ गयी और यों बातचीत करने लगीं––
कमलिनी––अब इसी जगह से मैं तुमसे अलग होऊँगी।
तारा––अफसोस, यह दुश्मनी अब हद से ज्यादा बढ़ चली!
कमलिनी––फिर क्या किया जाय, तू ही बता, इसमें मेरा क्या कसूर है।
तारा––तुम्हें कोई भी दोषी नहीं ठहरा सकता। इसमें कोई सन्देह नहीं कि महारानी अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मार रही हैं।
कमलिनी––हरएक लक्षण पर ध्यान देने से अब महारानी को भी निश्चय हुआ है कि ये ही दोनों भाई तिलिस्म के मालिक होंगे, फिर उसके लिए जिद करना और उन दोनों की जान लेने का उद्योग करना भूल नहीं तो क्या है?
तारा––बेशक भूल है और इसकी वह सजा पावेंगी। तुमने बहुत अच्छा किया कि उनका साथ छोड़ दिया। (मुस्करा कर) इसके बदले में जरूर तुम्हारी मुराद पूरी होगी।
कमलिनी––(ऊँची साँस लेकर) देखें, क्या होता है।
तारा––होना क्या है? क्या उनकी आँखों ने उनके दिल का हाल तुमसे नहीं कह दिया?
कमलिनी––हाँ, ठीक है। खैर, इस समय तो उन पर भारी मुसीबत या पड़ी है। जहाँ तक हो सके उन्हें जल्द बचाना चाहिए।
तारा––मगर मुझे ताज्जुब मालूम होता है कि उनके छुड़ाने का कोई उद्योग किए बिना ही तुम यहाँ चली आयीं?
कमलिनी––क्या तुझे मालूम नहीं कि नानक ने इसी ठिकाने मुझसे मिलने का वादा लिया है? उसने कहा था कि जब मिलना हो, इसी ठिकाने आना। कह दिया?
- ↑ इसका नाम'मौलिश्री'भी है।