पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/११५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
114
 

इन्द्रदेव - क्या आप इतना भी कह सकते हैं कि राजा साहब के समय की बनिस्बत आज ज्यादा प्रसन्न हैं?

दारोगा—(ऊँची साँस लेकर) हाय, प्रसन्नता तो मानो मेरे लिए सिरजी ही नहीं गई!

इन्द्रदेव-नहीं-नहीं, आप ऐसा कदापि नहीं कह सकते, बल्कि ऐसा कहिये कि ईश्वर की दी हुई प्रसन्नता को आपने लात मार कर घर से निकाल दिया।

दारोगा-बेशक ऐसा ही है।

इन्द्रदेव-(जोर देकर) और आज नाक कटा कर भी दुनिया में मुँह दिखाने के लिए आप तैयार हैं और पिछली बातों पर जरा भी अफसोस नहीं करते! जिस कम्बख्त मायारानी ने अपना धर्म नष्ट कर दिया, जो मायारानी लोक-लाज को एकदम तिलांजलि दे बैठी, जिस दुष्टा ने अपने सिरताज राजा गोपालसिंह के साथ ऐसा घात किया, जिस पिशाचिनी ने अपने माता-पिता की जान ली, जिसकी बदौलत आपको कारागार (कैदखाने) का मजा चखना पड़ा और जिसके सतसंग से आप अपनी नाक कटा बैठे, आज पुनः उसी की सहायता करने के लिए आप तैयार हुए हैं और इस पाप में मुझसे सहायता लेकर मुझे भी नष्ट करना चाहते हैं! वाह भाई साहब वाह, आपने गुरु का अच्छा नाम रोशन किया और मुझे भी अच्छा उपदेश कर रहे हैं! बड़े अफसोस की बात है कि आप सा एक अदना आदमी, जो एक रंण्डी के हाथ से अपनी नाक नहीं बचा सका, राजा वीरेन्द्रसिंह ऐसे प्रतापी राजा का नामो-निशान मिटाने के लिए तैयार हो जाय! मैंने तो राजा वीरेन्द्रसिंह का केवल इतना ही कसूर किया कि आपको उनके कैदखाने से निकाल लाया और अब इसी अपराध को क्षमा कराने के उद्योग में लगा हूँ, मगर आप, जिनकी दौलत मैं अपराधी हुआ हूँ, अब फिर...

इतना कहते-कहते इन्द्रदेव रुक गया क्योंकि पल-पल भर में बढ़ते जानेवाले क्रोध ने उसका कंठ बन्द कर दिया।उसका चेहरा लाल हो रहा था और होंठ काँप रहे थे। दारोगा का चेहरा जर्द पड़ गया, पिछले पापों ने उसके सामने आकर अपनी भयानक मूर्ति दिखाके डराना शुरू किया और वह दोनों हाथों से अपना मुँह ढाँककर रोने लगा।

थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा इसके बाद इन्द्रदेव ने फिर कहना शुरू किया--

इन्द्रदेव-हाय, मुझे रह-रह कर वह जमाना याद आता है जिस जमाने में दयावान और धर्मात्मा राजा गोपालसिंह की बदौलत आपकी कदर और इज्जत होती थी। जब कोई सौगात उनके पास आती थी तब वह 'लीजिए बड़े भाई' कह कर आपके सामने रखते थे। जब कोई नया काम करना होता था तो 'कहिए बड़े भाई, आप क्या आज्ञा देते हैं?' कह कर आपसे राय लेते थे, और जब उन्हें क्रोध चढ़ता था और उनके सामने जाने की किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी तब आप की सूरत देखते ही सिर अका लेते थे और बड़े उद्योग से अपने क्रोध को दबा कर हँस देते थे। क्या कोई कह सकता है कि आपसे डर कर या दब कर वे ऐसा करते थे? नहीं, कदापि नहीं, इसका सबब केवल प्रेम था। वे आपको चाहते थे और आप पर विश्वास रखते थे कि स्वामीजी