पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/१७०

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बहादुरी दिखाई मगर नकाबपोश ने अब भी अपनी कमर से तलवार निकालने का कष्ट स्वीकार न किया और लकड़ी के डण्डे से ही उसका मुकाबला किया। हाँ, उसने इतना अवश्य किया कि बायें हाथ में अपनी ढाल ले ली जिसके सहारे अपने वैरी की चोटों को बचाता जाता था। इसी बीच में श्यामसुन्दर सिंह वहां आ पहुँचा और गठरी उठा कर चलता बना।

थोड़ी ही देर में मौका पाकर नकाबपोश ने बैरी की उस कलाई पर, जिसमें तलवार का बेशकीमत कब्जा था, एक डण्डा ऐसा जमाया कि वह बेकाम हो गई और तलवार उसके हाथ से छूट कर जमीन पर गिर पड़ी। उसी समय भूतनाथ पुनः चिल्ला उठा, "वाह उस्ताद, क्या कहना है! तुम-सा बहादुर मैंने आज तक न देखा और न देखने की आशा ही है!"

अब उस आदमी को हर तरह से नाउम्मीदी हो गई और उसने समझ लिया कि इस बहादुर नकाबपोश का मुकाबला मैं किसी तरह नहीं कर सकता और न यह नकाबपोश मुझे जान से मारने की ही इच्छा रखता है। वह आश्चर्य, लज्जा और निराशा की निगाह से नकाबपोश की तरफ देखने लगा। है नकाबपोश-मैं पुनः कहता हूँ कि मुझसे मुकाबला करने का इरादा छोड़ दो और जो कुछ भी हुक्म दे चुका हूँ, उसे मानो अर्थात् यहाँ से चले जाओ। हाँ, तुम्हारे और भूतनाथ के मामले में मैं किसी तरह की रुकावट न डालूंगा, तुम दोनों में जो कुछ पटे, पटा लो।

आदमी --अच्छा ऐसा ही होगा।

यह कह कर वह भूतनाथ के पास गया और बोला, "अब बोलो, मेरे साथ चलोगे या नहीं! जो कुछ कहना हो, साफ-साफ कह दो!"

भूतनाथ-मैं तुम्हारे साथ चलने पर राजी नहीं हैं।

आदमी-अच्छा, तो फिर मुझे भी जो कुछ कहना है, इस बहाहुर नकाबपोश के सामने ही कह डालता हूँ, क्योंकि ऐसा बहादुर गवाह मुझे फिर न मिलेगा।

यह कह कर उसने बड़े जोर से ताली बजाई। भूतनाथ समझ गया कि इसने फिर उस आदमी को बुलाया है जो सिर से पैर तक अपने को ढांके हुए था और जिसके हाथ में वह पुलिन्दा भी इसने दे दिया है जिसमें इसके कथनानुसार तारा की किस्मत बन्द है।

जो कुछ भूतनाथ ने सोचा, वास्तव में वही बात थी। मगर थोड़ी देर तक राह देखने पर भी वह आदमी न आया। जिसे उस विचित्र मनुष्य ने ताली बजा कर बुलाया था। इसलिए उसके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा और वह स्वयं उसकी खोज में चला गया। थोड़ी देर तक चारों तरफ खोजता रहा, इसके बाद उसने एक झाड़ी के अन्दर उस आदमी को विचित्र अवस्था में देखा, अर्थात् अब वह कपड़ा उसके ऊपर न था। जिसने सिर से पैर तक उसे छिपा रखा था और इसलिए वह साफ औरत मालूम पड़ती थी। वह जमीन पर पड़ी हुई थी, रस्सी से हाथ-पैर बँधे हुए थे। एक कपड़ा उसके मुंह पर इस तरह बंधा हुआ था कि हजार उद्योग करने पर भी वह कुछ बोल