देवीसिंह--इधर हम लोगों के साथ मिल के भूतनाथ ने जो-जो काम किए हैं उनसे विश्वास हो गया था कि वह हम लोगों का खैरख्वाह है, हम लोग उससे बहुत ही प्रसन्न थे और...
बलभद्रसिंह-नहीं वह ऐसे काले सांप का जहरीला बच्चा है जिसके काटे का मन्त्र ही नहीं। उसका कोई ठिकाना नहीं। बेशक वह कुछ दिन में आप लोगों को अपने आधीन करके मायारानी से मिल जाता। यह काम भी वह कभी का कर चुका होता, मगर जब से उसने मेरी सुरत देख ली है और उसे निश्चय हो गया कि मैं मरा नहीं बल्कि जीता हूँ तब से उसकी अक्ल ठिकाने नहीं है, वह घबरा गया है और अपने बचाव की तरकीब सोच रहा है। (तेजसिंह से) खैर, आगे पढ़िए, देखिए और क्या बात मालूम होती है!
तेजसिंह ने अगली चिट्ठी पढ़ी, उसमें यह लिखा हुआ था
"मेरे लॅंगोटिया यार हेलासिंह-
"मालूम होता है तुम्हारा नसीबा बड़ा जबर्दस्त है। राजा गोपाल सिंह का बुड्ढा बाप बड़ा ही चांगला और काइयाँ था। वह कम्बख्त अपने ही मन की करता था। अगर वह जीता रहता तो लक्ष्मीदेवी की शादी गोपालसिंह से अवश्य हो जाती, क्योंकि वह बलभद्रसिंह की बहुत इज्जत करता था। बलभद्रसिंह की जाति उत्तम है और जातिपाँति का खयाल वह बुड्ढा बहुत करता था। खैर आज मैं तुम्हें बधाई देता हूँ कि मेरी और दारोगा की मेहनत ठिकाने लगी और वह इस दुनिया से कूच कर गया। सच तो यह है कि बड़ा भारी काँटा निकल गया। अब साल-भर के लिए शादी रुक गई और इस बीच में हम लोग बहुत कुछ कर गुजरेंगे।
वही-भूत०।"
चिट्ठी पूरी करने के साथ ही तेजसिंह की आँखों से आँसू की बूंदें टपकने लगी और उन्होंने एक लम्बी साँस लेकर कहा, "अफसोस! यह बात किसी को भी मालूम न हुई कि राजा गोपालसिंह का बाप इन दुष्टों की चालबाजियों का शिकार हुआ। बेचारा बड़ा ही लायक और बात का धनी था।"
तारा यद्यपि बड़ी मुश्किल से अपने दिल को रोके हुए यह सब तमाशा देख और सन रही थी मगर इस चिट्ठी ने उसके साहस में विघ्न डाल दिया और उसे सभी की आँखें बचा कर आँचल के कोने से अपने आँसू पोंछने पड़े। किशोरी, कामिनी, लाडिली, कमलिनी और ऐयारों का दिल भी हिल गया और भूतनाथ की सूरत घृणा के साथ उनकी आँखों के सामने घूमने लगी। तेजसिंह ने कागज का मृदा जमीन पर रख दिया और अपने दिल को सम्हालने की नीयत से सिर उठाकर सरसब्ज पहाडियों की तरफ देखने लगे। थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा इसके बाद तेजसिंह ने कागज का मुद्दा उठा लिया और फिर पढ़ने लगे।