पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/२१०

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दालान को बिछावन आसन और रोशनी के सामान से इस तरह सजा रहा है जैसे किसी नए या बहुत ही प्यारे मेहमान की अवाई सुन कर जाहिरदारी के शौकीन लोग सजाया करते हैं। उसकी स्त्री भी खाने-पीने के सामान की तैयारी में चारों तरफ मटकती फिरती है और थालियों को तरह-तरह के खाने तथा कई प्रकार के मांस से सजा रही है। उस की सूरत-शक्ल और चाल-ढाल से यह भी पता लगता है कि उसे अपने मेहमान के आने की खुशी नानक से भी ज्यादा है। खैर, इस टीमटाम के बयान को तो जाने दीजिये, मुख्तसिर यह है कि बात की बात में सब सामान दुरुस्त हो गया और नानक की स्त्री ने अपनी लौंडी से कहा―“अरे, जरा आगे बढ़ के देख तो सही, गज्जू बाबू आते हैं या नहीं!”

लौंडी―(धीरे से, जिसमें दूसरा कोई सुनने न पावे) बीबी जल्दी क्यों करती हो, वे तो यहाँ आने के लिए तुमसे भी ज्यादा बेचैन हो रहे होंगे।

बीबी―(मुस्कुरा कर धीरे से) कम्बख्त―यह तू कैसे जानती है?

लौंडी―तुम्हारी और उनकी चाल से क्या मैं नहीं जानती? क्या उस एकादशी के रात वाली बात भूल जाऊँगी? (अपना बाजू दिखाकर) देखो यह तुम्हारी...

लौंडी अपनी बात पूरी भी न करने पाई थी कि मटकते हुए नानक भी उसी तरफ आ पहुँचे और लाचार होकर लौंडी को चुप रह जाना पड़ा।

नानक―(सजी हुई थालियों की तरफ देख के) अरे, इसमें मुरब्बा तो रक्खा ही नहीं!

बीबी―मुरब्बा क्या खाक रखती! न मालूम कहाँ से सड़ा हुआ मुरब्बा उठा लाये! वह उनके खाने लायक भी है? लखपती आदमी की थाली में रखते शर्म तो नहीं मालूम पड़ती!

नानक—मेरा तो दो आना पैसा उसमें लग गया और तुम्हें पसन्द ही नहीं। क्या मैं अंधा था जो सड़ा हुआ मुरब्बा उठा लाता!

बीबी―तुम्हारे अंधे होने में शक ही क्या है? ऐसे ही आँख वाले होते तो रामभोली, अपनी माँ और अपने बाप की पहचानने में वर्षों तक काहे झख मारते रहते?

नानक―(चिढ़ कर) तुम्हारी बातें तो तीर की तरह लगती हैं! तुम्हारे तानों ने तो कलेजा पका दिया! रोज-रोज की किचकिच ने तो नाकों दम कर दिया! न मालूम कहाँ की कम्बख्ती आयी थी जो तुम्हें मैं अपने घर में ले आया।

बीबी—(अपने मन में) कम्बख्ती नहीं आई थी बल्कि तुम्हारा नसीब चमका था जो मुझे अपने घर में लाए! अगर मैं न आती तो ऐसे-ऐसे अमीर तुम्हारे दरवाजे पर थूकने भी नहीं आते! (प्रकट) तुम्हारी कम्बख्ती तो नहीं मेरी कम्बख्ती आई थी जो इस घर में आई! जने-जने के सामने मुँह दिखाना पड़ता है। तुम्हें तो ऐसा मकान भी न जुड़ा जिसमें मरदानी बैठक तो होती और तुम्हारे दोस्तों की खिदमत से मेरी जान छूटती। अच्छा तो तभी होता जब वही गूँगी तुम्हारे घर आती और दिन में तीन दफे झाडू दिलवाती। चलो, दूर हो जाओ मेरे सामने से, नहीं तो अभी भण्डा फोड़ के रख दुँँगी।