किताब को पढ़ते रहे, इसके बाद किताब सँभाल कर उसी जगह लेट गए और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।
उस बाग में कुँवर इन्द्रजीतसिंह को दो दिन बीत गए। इस बीच में वे कोई ऐसा काम न कर सके जिससे अपने भाई कुँवर आनन्दसिंह को खोज निकालते या बाग से बाहर निकल जाते या तिलिस्म तोड़ने में ही हाथ लगाते, हाँ, इन दो दिन के अन्दर वे खन से लिखी हुई तिलिस्मी किताब को अच्छी तरह पढ़ और समझ गये बल्कि उसके मतलब को इस तरह दिल में बैठा लिया कि अब उस किताब की उन्हें कोई जरूरत न रही। ऐसा होने से तिलिस्म का पूरा-पूरा हाल उन्हें मालूम हो गया और वे अपने को तिलिस्म तोड़ने लायक समझने लगे। खाने-पीने के लिए उस बाग में मेवों और पानी की कुछ कमी न थी।
तीसरे दिन दोपहर दिन चढ़े बाद कुछ कार्रवाई करने के लिए कुमार फिर उस भेड़िये की मूरत के पास गए जो मन्दिर में चबूतरे के ऊपर बैठाई हुई थी। वहां कुमार को अपनी कुल ताकत खर्च करनी पड़ी। उन्होंने दोनों हाथ लगाकर भेड़िये को बाईं तरफ इस तरह घुमाया जैसे कोई पेंच घुमाया जाता है। तीन चक्कर घूमने के बाद वह भेड़िया चबूतरे से अलग हो गया और जमीन के अन्दर से घरघराहट की आवाज आने लगी। कुमार उस भेड़िये को एक किनारे रखकर बाहर निकल आए और राह देखने लगे कि अब क्या होता है। घण्टे भर तक बराबर वह आवाज आती रही और फिर धीरे-धीरे कम होकर बन्द हो गई। कुमार फिर उस मन्दिर के अन्दर गए और देखा कि वह चबूतरा जिस पर भेड़िया बैठा हुआ था, जमीन के अन्दर धंस गया और नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां दिखाई दे रही हैं। कुमार बेधड़क नीचे उतर गए। वहां पूरा अन्धकार था इसलिए तिलिस्मी खंजर से चांदनी करके चारों तरफ देखने लगे। यह एक कोठरी थी जिसकी चौड़ाई बीस हाथ और लम्बाई पच्चीस हाथ से ज्यादा न होगी। चारों तरफ की दीवारों में छोटे-छोटे कई दरवाजे थे जो इस समय बन्द थे। कोठरी के चारों कोनों में पत्थर की चार मुरतें एक ही रंग-ढंग की और एक ही ठाठ से खड़ी थीं, सूरत-शक्ल में कुछ भी फर्क न था, या था भी तो केवल इतना ही कि एक मूरत के हाथ में खंजर और बाकी तीन मूरतों के हाथ में कुछ भी न था।
कुमार पहले उसी मूरत के पास गए जिसके हाथ में खंजर था। पहले उसकी उँगलियों की तरफ ध्यान दिया। बाएं हाथ की उंगली में अंगूठी थी जिसे निकाल कर पहिन लेने के बाद खंजर ले लिया और कमर में लगाकर धीरे से बोले, "इस तिलिस्म में ऐसे तिलिस्मी खंजर के बिना वास्तव में काम नहीं चल सकता, अब आनन्दसिंह मिल जाय तो यह खंजर उसे दे दिया जाय।"
पाठक समझ ही गये होंगे कि मूरत के हाथ से जो खंजर कुमार ने लिया, वह उसी प्रकार का तिलिस्मी खंजर था जैसा कि पहले से एक कमलिनी की बदौलत कुमार के पास था। इस समय कुँवर इन्द्रजीतसिंह जो कुछ कार्रवाई कर रहे हैं बल्कि खून से लिखी हुई तिलिस्मी किताब के मतलब को समझ अपनी विमल बुद्धि से जांच और ठीक करके करते हैं, तथा आगे के लिए भी पाठकों को ऐसा ही समझना चाहिए।
च० स०-3-4