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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/९३

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आया भी हूँ, सच तो यह है कि वह भी मुझे जी-जान से मानती और प्यार करती है।"

नागर—अफसोस और ताज्जुब की बात यह है कि तुम मायारानी की शान में ऐसी बात कह रहे हो। निःसन्देह तुम झूठे और दगाबाज हो। मायारानी को क्या पड़ी है कि वह तुमसे मुहब्बत करें? क्या वह भी मेरी तरह से गन्धर्व कुल को रौनक देने वाली हैं?

श्यामलाल--(हँस कर और चिट्ठी वाला हाथ अपनी तरफ खींच कर) हः-हः-हः, जब तुम असल बातों को जानती ही नहीं हो तो मेरी बातें क्योंकर समझ सकती हो? तुम मायारानी की सखी कहलाने का दावा रखती हो, मगर मैं देखता हूँ कि मायारानी तुम्हें एक लौंडी के बराबर भी नहीं समझती। यही सबब है कि उसने अपना असली हाल तुमसे कुछ भी नहीं कहा। अफसोस, तुम्हें इतनी खबर भी नहीं है कि मायारानी मेरी सगी साली है।

नागर-(चौंक कर) मायारानी तुम्हारी साली हैं! और लक्ष्मीदेवी?

श्यामलाल-लक्ष्मीदेवी वह है जिसकी जगह मायारानी मेरी और दारोगा की मदद... मगर नहीं, ओफ, मैं भूलता हूँ, जब मायारानी ने ही खुद अपना हाल तुमसे छिपाया, तो मैं क्यों कहूँ? अच्छा, मायारानी आवे तो कह देना कि श्यामलाल आया था और कह गया है कि मैंने लक्ष्मीदेवी और गोपालसिंह का बन्दोवस्त कर लिया है। अब तू बेफिक्र होकर बैठ और जहाँ तक हो सके, मुझसे जल्द मिल। लेकिन अफसोस तो यह है कि इस मकान में रहने वाले आज गिरफ्तार कर लिए जायेंगे और मायारानी को यहाँ आने का मौका ही न मिलेगा। तब मैं यह सब बातें तुमसे क्यों कह रहा हूँ। अच्छा खैर, जाने दो, जहाँ तक हो जल्द भाग कर तुम अपनी जान बचाओ और जो कुछ दौलत यहाँ से निकाल कर ले जा सको, लेती जाओ। लो, अब मैं जाता हूँ।

नागर--सुनो-सुनो, वह चिट्ठी जो तुम मुझे दिखाना चाहते थे, सो तो दिखा दो, और इसके बाद मेरी एक बात का जवाब देकर तब जाओ।

श्यामलाल--(कुछ सोच कर और नागर की तरफ चिट्ठी बढ़ा कर) खैर, लो, तुम ही पढ़ लो, देखो तो सही अपनी साली की खातिर से कैसे खुशबूदार अतरों से बसी हुई चिट्ठी तयार करके मैं लाया था। अच्छा कोई हर्ज नहीं, किसी जमाने में तुम भी मुझे खुश कर चुकी हो। इसके पढ़ने से आने वाली आफत का पूरा-पूरा हाल मिल जायगा। मैं यह चिट्ठी इसलिए लिख लाया था कि शायद किसी सबब से मैं स्वयं मायारानी से न मिल सकूँगा, तो यह चिट्ठी भेज कर उसे आने वाली आफत से होशियार कर दूँगा और फिर वह स्वयं मुझसे मिल लेगी, मगर अफसोस! उससे तो मुलाकात ही न हुई। खैर, इस चिट्ठी को पढ़ो, मगर बैठ जाओ और मुझे भी बैठने के लिए कहो, क्योंकि मैं खड़ा-खड़ा थक गया हूँ।

नागर ने अपने हाथ में चिट्ठी लेकर श्यामलाल को बैठने के लिए कहा और खुद भी उसी जगह बैठ कर लिफाफा खोला। लिफाफे और चिट्ठी का कागज खुशबूदार चीजों से ऐसा बसा हुआ था कि लिफाफा हाथ में लेने और खोलने के साथ ही नागर का जी खुश हो गया। ऐसी मीठी और भली खुशबू उसके दिमाग में शायद आज तक न