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गोपालसिंह--न मालूम क्योंकर गायब हो गई, मगर इतना जरूर कह सकते हैं कि जिसने यह किताब चुराई है वह तिलिस्म के भेदों से कुछ जानकार अवश्य हो गया है। इसे आप लोग साधारण बात न समझिए ! इस चोरी से हमारा उत्साह भंग हो गया और हिम्मत जाती रही, हम आप लोगों को इस तिलिस्म में किसी तरह की मदद देने लायक न रहे, और हमें अपनी जान जाने का भी खौफ हो गया। इतना ही नहीं, सबसे ज्यादा तरदुद की बात तो यह है कि वह चोर आश्चर्य नहीं कि अब आप लोगों को भी दुःख दे।
इन्द्रजीतसिंह--यह तो बहुत बुरा हुआ।
गोपालसिंह--बेशक बुरा हुआ। हाँ, यह तो बताइये, इस बाग में लालटेन लिए कौन घूम रहा था?
आनन्दसिंह--वही औरत जिसे मैंने तिलिस्म के अन्दर बाजे वाले कमरे में देखा था और जो फाँसी लटकते हुए मनुष्य के पास निर्जीव अवस्था में खड़ी थी। (इन्द्रजीतसिंह की तरफ इशारा करके) आप भाईजी से पूछ लीजिए कि मैं सच्चा हूँ या नहीं।
इन्द्रजीतसिंह--बेशक उसी रंग-रूप और चाल-ढाल की औरत थी!
गोपालसिंह--बड़े आश्चर्य की बात है ! कुछ अक्ल काम नहीं करती!
इन्द्रजीतसिंह--हम दोनों ने उसे गिरफ्तार करने के लिए बहुत उद्योग किया, मगर कुछ बन न पड़ा। इन्हीं चमेली की टट्टियों में वह खुशबू की तरह हवा के साथ मिल गई, कुछ मालूम न हुआ कि कहाँ चली गई!
गोपालसिंह--(घबराकर) इन्हीं चमेली की टट्टियों में ? वहाँ से तो देवमन्दिर में जाने का रास्ता है जो बाग के चौथे दर्जे में है!
इन्द्रजीतसिंह--(चौंक कर) देखिए-देखिए, वह फिर निकली!
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इस जगह हमें भूतनाथ के सपूत लड़के तथा खुदगर्ज और मतलबी ऐयार नानक का हाल पुनः लिखना पड़ा।
हम ऊपर के किसी बयान में लिख आये हैं कि जिस समय नानक अपने मित्र की ज्याफत में तन, मन, धन और आधे शरीर से लौलीन हो रहा था, उसी समय उस पर वज्रपात हुआ, अर्थात् एक नकाबपोश उसके बाप की दुर्दशा का हाल बताकर उसे अंधे कुएँ में धकेल गया। लोग कहते हैं कि उसे अपने बाप से कुछ भी मुहब्बत न थी, हाँ अपनी माँ को कुछ-कुछ जरूर चाहता था, जिस पर उसकी नई-नवेली दुलहिन ने उसे कुछ ऐसा मुट्ठी में कर लिया था कि उसी को सब-कुछ तथा इष्टदेव समझ बैठा था और उसकी उपासना से विमुख होना हराम समझता था। यद्यपि वह अपने बाप की कुछ परवाह नहीं करता था और न उसको उससे कुछ प्रेम ही था, मगर वह अपने बाप से डरता