चौथे दिन आधी रात के समय मेरे पिता नाना साहब वाले मकान में फाटक के ऊपर वाले कमरे के अन्दर पलँग पर लेटे हुए कुँअर साहब के विषय में कुछ सोच रहे थे कि यकायक कमरे का दरवाजा खुला और आप (गोपालसिंह) कमरे के अन्दर आते हुए दिखाई पड़े। मुहब्बत और दोस्ती में बड़ाई-छुटाई का दर्जा कायम नहीं रहता। कुंअर साहब को देखते ही मेरे पिता उठ खड़े हुए और दौड़कर इनके गले से चिपटकर बोले, "क्यों साहब, आप इतने दिनों तक कहाँ थे?"
उस समय कुँअर साहब की आँखों से आंसू की बूंदें टपटपाकर गिर रही थीं; चेहरे पर उदासी और तकलीफ की निशानी पाई जाती थी, और उन दिनों में ही उनके बदन सायद हालत हो गई थी कि महीनों के बीमार मालूम पड़ते थे। मेरे पिता ने हाथ-मुँह धलवाया तथा अपने पलंग पर बैठाकर हाल-चाल पूछा और कुअर साहब ने इस तरह अपना हाल बयान किया--
"उस दिन मैंने तुमको बुलाने के लिए चोबदार भेजा, जब तक चोवदार तुम्हारे यहाँ से लौटकर आये उसके पहले ही एक खिदमतगार ने मुझे इत्तिला दी कि इन्द्रदेव ने आपको अपने घर अकेले ही बुलाया है। मैं उसी समय उठ खड़ा हुआ और अकेले तुम्हारे मकान की तरफ रवाना हुआ। जब आधे रास्ते में पहुँचा तो तुम्हारे यहां का अर्थात् दामोदरसिंह का खिदमतगार, जिसका नाम प्यारे है, मुझे मिला और उसने कहा कि इन्द्रदेव गंगा-किनारे की तरफ गये हैं और आपको उसी जगह बुलाबा है। मैं क्या जानता था कि एक अदना खिदमतगार मुझसे दगा करेगा। मैं बेधड़क उसके साथ गंगा के किनारे की तरफ रवाना हुआ। आधी रात से ज्यादा तो जा ही चुकी थी अतएव गंगा किनारे बिल्कुल सन्नाटा छाया हुआ था। मैंने वहाँ पहुँचकर किसी को न पाया तो उस नौकर से पूछा कि इन्द्रदेव कहाँ हैं ? उसने जवाब दिया कि ठहरिये आते होंगे। उस घाट पर केवल एक डोंगी बँधी हुई थी, मैं कुछ विचारता हुआ उस डोंगी की तरफ देख रहा था कि यकायक दोनों तरफ से दस-बारह आदमी चेहरों पर नकाबें डाले हए आ पहुंचे और उन सभी ने फर्ती के साथ मुझे गिरफ्तार कर लिया। वे सब बड़े मजबूत और ताकतवर थे और सबके सब एक साथ मुझसे लिपट गये। एक ने मेरे मुंह पर एक मोटा कपड़ा डालकर ऐसा कस दिया कि न तो मैं बोल सकता था और न कुछ देख सकता था, बात-की-बात में मेरी मुश्क बाँध दी गई और जबरदस्ती उसी डोंगी पर बैठा दिया गया जो घाट के किनारे बंधी हुई थी। डोंगी किनारे से खोल दी गई और बड़ी तेजी से चलाई गई। मैं नहीं कह सकता कि वे लोग कितने आदमी थे और दो ही घण्टे में जब तक कि मैं उस पर सवार था, डोंगी को लेकर कितनी दूर तक गये। लगभग दो घण्टे के करीब बीत गये, तब डोंगी किनारे लगी और मुझे उतारकर एक घोड़े पर चढ़ाया गया ! मेरे दोनों पैर घोड़े के नीचे की तरफ मजबूती के साथ बाँध दिए गए, हाथ की रस्सी ढीली कर दी, जिसमें मैं घोड़े की काठी पकड़ सकं और घोड़ा तेजी के साथ एक तरफ को दौड़ाया गया। मैं दोनों हाथों से घोड़ की काठी पकड़े हए था। यद्यपि मैं देखने और बोलने से लाचार कर दिया गया था मगर अन्दाज से और घोड़ों की टापों की आवाज से मालम हो गया कि मुझे कई सवार घेरे हुए चल रहे हैं और मेरे घोड़े की भी लगाम किसी सवार के हाथ में है। कभी तेजी से और