पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/१३७

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तरह दुश्मनों के फन्दे में फंस गई?

इन्दिरा--जो आज्ञा। यह तो मैं कह ही चुकी हूँ कि मेरे पिता जब जमानिया में आये तो अपने दो ऐयारों को साथ लाये थे, जो दुश्मनों का पता लगाते ही लगाते गायब हो गये थे।

इन्द्रजीत सिंह--हाँ, कह चुकी हो, अच्छा तब ?

इन्दिरा-इन्हीं दोनों ऐयारों की सूरत बनाकर दुश्मनों ने हम लोगों को धोखा दिया।

इन्द्रजीत सिंह--दुश्मन उस मकान के अन्दर गये कैसे ? तुम कह चुकी हो कि . वहाँ का रास्ता बहुत टेढ़ा और गुप्त है?

इन्दिरा--ठीक है, मगर कम्बख्त दारोगा उस रास्ते का हाल बखूबी जानता था और वही उस कमेटी का मुखिया था। ताज्जुब नहीं कि उसी ने उन आदमियों को भेजा हो।

इन्द्रजीतसिंह ठीक है, निःसन्देह ऐसा ही हुआ होगा, फिर क्या हुआ? उन्होंने क्योंकर तुम लोगों को धोखा दिया?

इन्दिरा--संध्या का समय था जब मैं अपनी माँ के साथ उस छोटे से नजरबाग में टहल रही थी जो बंगले के बगल ही में था। यकायक मेरे पिता के वे ही दोनों ऐयार वहाँ आ पहुँचे जिन्हें देख मेरी माँ बहुत खुश हुई और देर तक जमानिया का हालचाल पूछती रही। उन ऐयारों ने ऐसा बयान किया, "इन्द्रदेवजी ने तुम दोनों को जमानिया बुलाया है हम लोग रथ लेकर आये हैं, मगर साथ ही इसके उन्होंने यह भी कहा है कि यदि वे खुशी से आना चाहें तो ले आना नहीं तो लौट आना।" मेरी माँ को जमानिया पहुँचकर अपनी मां को देखने की बहुत ही लालसा थी, वह कब देर करने वाली थी, तुरन्त ही राजी हो गयी और घण्टे भर के अन्दर ही सब तैयारी कर ली। ऐयार लोग मातबर समझे ही जाते हैं अस्तु ज्यादा खोज करने की कोई आवश्यकता न समझी, केवल दो लौंडियों को और मुझे साथ लेकर चल पडी, कलमदान भी साथ ले लिया। हमारे दूसरे ऐयारों ने भी कुछ मना न किया क्योंकि वे भी धोखे में पड़ गये थे और उन ऐयारों को सच्चा समझ बैठे थे। आखिर हम लोग खोह के बाहर निकले और पहाडी के नीचे उतरने की नीयत से थोड़ी ही दूर आगे बढ़े थे कि चारों तरफ से दस-पन्द्रह दुश्मनों ने घेर लिया। अब उन ऐयारों ने भी रंगत पलटी, मुझे और मेरी मां को जबर्दस्ती बेहोशी की दवा सुंघा दी। हम दोनों तुरन्त ही बेहोश हो गईं। मैं नहीं कह सकती कि दोनों लौंडियों की क्या दुर्दशा हुई। मगर जब मैं होश में आई तो अपने को एक तहखाने में कैद पाया और अपनी माँ को अपने पास देखा जो मेरे पहले ही होश में आ चुकी थी और मेरा सिर गोद में लेकर रो रही थी। हम लोगों के हाथ-पैर खुले हुए थे, जिस कोठरी में हम लोग कैद थे, वह लम्बी-चौड़ी थी और सामने की तरफ दरवाजे की जगह लोहे का जंगला लगा हुआ था। जंगले के बाहर दालान था और उसमें एक तरफ चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं तथा सीढ़ी के बगल ही में एक आले के ऊपर चिराग जल रहा था। मैं पहले बयान कर चुकी हूँ कि उन दिनों जाड़े का मौसम था। इसलिए हम लोगों को