चाहिए कि इन्द्रदेव के साथ रहकर अपनी खैरख्वाही दिखाये और पुरानी कालिख अपने चेहरे से अच्छी तरह धो डाले नहीं तो उसके हक में अच्छा न होगा, और आप अपने एक ऐयार को हरामखोर नानक की तरफ रवाना कीजिए। मैं आपका ध्यान पुनः मनोरमा की तरफ दिलाता हूँ और कहता हूँ कि तिलिस्मी खंजर का उसके हाथ लग जाना बहुत ही बुरा हुआ। मनोरमा साधारण औरत नहीं है, उसकी तारीफ आप सुन ही चुके होंगे, तिलिस्मी खंजर को पाकर अब वह जो न कर डाले, वही आश्चर्य। उसके कब्जे से खंजर निकालने का शीघ्र उद्योग कीजिये और इस कामको सबसे ज्यादा जरूरी समझिये। इसके अतिरिक्त तेजसिंह की जबानी जो कुछ मैंने कहला भेजा है उस पर भी ध्यान दीजिये।"
इस चिट्ठी को सुनकर सभी को ताज्जुब हुआ। राजा वीरेन्द्रसिंह तो चुप ही रहे, सिर्फ इन्द्रदेव के हाथ से चिट्ठी लेकर तेजसिंह को दे दी और बोले, "सब काम इसी के मुताबिक होना चाहिए।" इसके बाद एक-एक के चेहरे को गौर से देखने लगे। भूतनाथ का चेहरा मारे क्रोध के लाल हो रहा था, नानक की अवस्था और नालायकी पर उसे बड़ा ही रंज हुआ था। लक्ष्मीदेवी के चेहरे पर भी हद से ज्यादा उदासी छाई हुई थी, बाप की फिक्र के साथ-ही-साथ उसे इस बात का बड़ा रंज और ताज्जुब था कि राजा गोपालसिंह ने सब हाल सुनकर भी उसकी कुछ खबर न ली, न तो मिलने के लिए आये और न कोई चिट्ठी ही भेजी। वह हजार सोचती और गौर करती थी, मगर इसका सबब कुछ भी उसके ध्यान में न आता था और न उसका दिल इसी बात को कबूल करता था कि राजा गोपालसिंह उसे इसी अवस्था में छोड़ देंगे। ज्यादा ताज्जुब तो उसे इस बात का था कि राजा गोपालसिंह ने मायारानी के बारे में भी कोई हुक्म नहीं लगाया जिसकी बदौलत वह हद से ज्यादा तकलीफ उठा चुके थे। अब इस खयाल ने उसे और सताना शुरू किया कि हम लोगों को चुनार जाना होगा, जहाँ गोपालसिंह का पहुँचना और भी कठिन है, इत्यादि तरह-तरह की बात वह सोच रही थी और न रुकने वाले आँसूओं को रोकने का जी-जान से उद्योग कर रही थी। कमलिनी का चेहरा भी उदास था, राजा गोपालसिंह के विषय में वह भी तरह-तरह की बातें सोच रही थी और उनसे तथा नानक से स्वयं मिलना चाहती थी, मगर राजा वीरेन्द्रसिंह की मर्जी के खिलाफ कुछ करना भी उचित नहीं समझती थी।
राजा वीरेन्द्रसिंह ने इन्द्रदेव की तरफ देखकर कहा, आप क्या सोच रहे हैं? कृष्ण जिन्न पर मुझे बहुत बड़ा विश्वास है और उसने जो कुछ लिखा है, मैं उसे करने के लिए तैयार हूँ।"
इन्द्रदेव--आप मालिक हैं, आपको हर तरह पर अख्तियार है, जो चाहें करें और मुझे भी जो आज्ञा दें, करने के लिए तैयार हूँ। कृष्ण जिन्न की तो मैंने सूरत भी नहीं देखी है इसलिए उनके विषय में कुछ भी नहीं कह सकता, मगर मुझे अफसोस इस बात का है कि मैं यहाँ आकर कुछ भी न कर सका, न तो बलभद्रसिंह ही का पता लगा और न इन्दिरा के विषय में ही कुछ मालूम हुआ।
वीरेन्द्रसिंह--नकली बलभद्र सिंह जब तुम्हारे कब्जे में हो जाएगा, तो मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम इन दोनों ही का पता लगा सकोगे और कृष्ण जिन्न के लिखे मुताबिक