पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/१६२

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रहती थी, दया ने उसकी खिदमत बड़ी हमदर्दी के साथ की थी।

दया को मैदान की तरफ जाते देख मनोरमा ने उसका पीछा किया। दवे पाँव उसके साथ बराबर चली गई और जब जाना कि अब वह आगे न बढ़ेगी, तो एक पेड़ की आड़ देकर खड़ी हो गई। थोड़ी देर बाद जब दया जरूरी काम से छुट्टी पाकर लौटी तो मनोरमा बेधड़क उसके पास चली गई और फर्ती के साथ तिलिस्मी खंजर उसके मोढ़े पर रख दिया। उसी दम दया काँपी और थरथरा कर जमीन पर गिर पड़ी। मनोरमा ने उसे घसीटकर एक झाड़ी के अन्दर डाल दिया और निश्चय कर लिया कि जब राजा वीरेन्द्रसिंह का लश्कर यहाँ से कूचकर जायेगा और दिन निकल आवेगा तब सुभीते से दया की सुरत बनाकर इसको जान से मार डालूंगी और फिर तेजी के साथ चलकर लश्कर में जा मिलूंगी, आखिर ऐसा ही हुआ।

थोड़ी रात रहे राजा वीरेन्द्रसिंह का लश्कर वहाँ से कूच कर गया और जब पहर दिन चढ़े अगले पड़ाव पर पहुँचा तो किशोरी ने दया की खोज की, मगर दया का पता क्योंकर लग सकता था। बहुत-सी लौंडियाँ चारों तरफ फैल गईं और दया को ढूंढ़ने लगीं। दोपहर होते तक दया भी लश्कर में आ पहुँची जो वास्तव में मनोरमा थी। किशोरी ने पूछा, "दया, कहाँ रह गई थी? तेरी खोज में सब लौंडियाँ अभी तक परेशान हो रही हैं।"

नकली दया ने जवाब दिया, "जिस समय लश्कर कूच हुआ तो मेरे पेट में कुछ गड़गड़ाहट मालूम हुई। थोड़ी दूर तक तो मैं जी कड़ाकर चलती गई, आखिर जब गड़गड़ाहट ज्यादा हुई और रास्ते में एक कुआँ भी नजर आया तो लोटा-डोरी लेकर वहाँ ठहर गई। दो दफे तो टट्टी गई और तीन कै हुई, कै में बहुत-सा खट्टा पानी निकला। मैंने समझा कि बस अब किसी तरह लश्कर के साथ नहीं मिल सकती और यहाँ पड़ी बहुत दुःख भोगूंगी मगर ईश्वर ने कुशल की, थोड़ी देर तक मैं उसी कुएँ पर लेटी रही, आखिर मेरी तबीयत ठहरी तो मैं धीरे-धीरे रवाना हुई और मुश्किल से यहाँ तक पहुँची। कै करने में मुझे बहुत तकलीफ हुई और मेरा गला भी बैठ गया।"

किशोरी ने दया की अवस्था पर दुःख प्रकट किया और उसे दया की बातों पर विश्वास हो गया ! अब दया को किशोरी के साथ मेल-जोल पैदा करने में किसी तरह का खुटका न रहा और दो ही चार दिन में उसने किशोरी को अपने ऊपर बहुत ज्यादा मेहरबान बना लिया।

रोहतासगढ़ से चुनारगढ़ जाने के लिए यद्यपि भली-चंगी सड़क बनी हुई थी मगर राजा वीरेन्द्रसिंह का लश्कर सीधी सड़क छोड़ जंगल और मैदान ही में पड़ाव डालता हुआ चला जा रहा था क्योंकि हजारों आदमियों को जंगल और मैदान ही में आराम मिलता था, सड़क के किनारे उतनी ज्यादा जगह नहीं मिल सकती थी।

एक दिन जब राजा वीरेन्द्रसिंह का लश्कर एक बहुत रमणीक और हरे-भरे जंगल में पड़ाव डाले हुए था, संध्या के समय राजा वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह टहलते हुए अपने खेमे से कुछ दूर निकल गये और एक छोटे से टीले पर चढ़कर अस्त होते हुए सूर्य की शोभा देखने लगे। यकायक उनकी निगाह एक सवार पर पड़ी जो बड़ी तेजी के साथ