पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/१७४

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इन्द्रदेव--मैं दूंगा।

जयपाल--खैर, जैसी आपकी मर्जी ! मुझे स्वीकार है, मगर इस समय तो मेरी आँख में कोई दवा डालिये नहीं तो मैं मर जाऊंगा।

इन्द्रदेव--हाँ-हाँ, तेरी आँख का इलाज भी किया जायगा, मगर पहले तू उस तेली के नाम की चिट्ठी लिख दे।

जयपाल--अच्छा, मैं लिख देता हूँ, मेरे हाथ खोल कर कलम-दवात-कागज मेरे आगे रक्खो।

यद्यपि आँख की तकलीफ बहत ज्यादा थी मगर जयपाल भी बड़े ही कड़े दिल का आदमी था। उसका एक हाथ खोल दिया गया, कलम-दवात-कागज उसके सामने रक्खा गया, और उसने जयपाल तेली के नाम एक चिट्ठी लिखकर अपनी निशानी कर दी। चिट्ठी में यह लिखा हुआ था

"मेरे प्यारे जयपाल चक्री,

दारोगा बाबा वाला रोजनामचा इन्हें दे देना, नहीं तो मेरी और दारोगा की जान न बचेगी। हम दोनों आदमी इन्हीं के कब्जे में हैं।"

इन्द्रदेव ने वह चिट्ठी लेकर अपनी जेब में रक्खी और सरयूसिंह को जयपाल को दूसरी कोठरी में ले जाकर कैद करने का हक्म दिया तथा जयपाल की आँख में दवा लगाने के लिए भी कहा।

धूर्तराज जयपाल ने निःसन्देह इन्द्रदेव को धोखा दिया। उसने जो तेली के नाम चिट्ठी लिखकर दी उसके पढ़ने से दोनों मतलब निकलते हैं। "हम दोनों आदमी इन्हीं के कब्जे में हैं" ये ही शब्द इन्द्रदेव को फंसाने के लिए काफी थे, अतः देखना चाहिए वहाँ जाने पर इन्द्रदेव की क्या हालत होती है।

लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाड़िली को हर तरह से समझा-बुझाकर दूसरे दिन प्राःतकाल इन्द्रदेव जमानिया की तरफ रवाना हुए।



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अब हम अपने पाठकों को काशीपुरी में एक चौमंजिले मकान के ऊपर ले चलते हैं। यह निहायत संगीन और मजबूत बना हुआ है। नीचे से ऊपर तक गेरू से रँगे रहने के कारण देखने वाला तुरन्त कह देगा कि यह किसी गुसाईं का मठ है, काशी के मठधारी गुसाईं नाम ही के साधु या गुसाईं होते हैं। वास्तव में तो उनकी दौलत, उनका व्यापार, उनका रहन-सहन और बर्ताव किसी तरह गृहस्थों और बनियों से कम नहीं होता बल्कि दो हाथ ज्यादा ही होता है। अगर किसी ने धर्म और शास्त्र पर कृपा करके गुसाईंपने की कोई निशानी रख भी ली तो केवल इतनी ही कि एक टोपी गेरुए रंग की सिर पर या गेरुए रंग का एक दुपट्टा कन्धे पर रख लिया, सो भी भरसक रेशमी और बेशकीमत