जीता है और इन्दिरा तथा इन्दिरा की माँ के विषय में भी मैं आशा करता हूँ कि दोनों जीती होंगी।
इन्द्रदेव--बलभद्रसिंह के जीते रहने का तो तुझे निश्चय है, मगर इन्दिरा और उसकी मां के बारे में 'आशा है' से क्या मतलब?
जयपाल सिंह---इन्दिरा और इन्दिरा की माँ को दारोगा ने तिलिस्म में बन्द करना चाहा था, उस समय न मालूम किस ढंग से इन्दिरा तो छूटकर निकल गई, मगर उसकी माँ जमानिया तिलिस्म के चौथे दर्जे में कैद कर दी गई। इसी से उसके बारे में निश्चय रूप से नहीं कह सकता, मगर बलभद्रसिंह अभी तक जमानिया में उस मकान के अन्दर कैद है जिसमें दारोगा रहता था। यदि आप मुझे छुट्टी दें या मेरे साथ चलें तो मैं उसे बाहर निकाल लूं या आप खुद जाकर जिस ढंग से चाहें उसे छुड़ा लें।
इन्द्रदेव--मुझे तेरी यह बात भी सच नहीं जान पड़ती।
जयपालसिंह--नहीं-नहीं, अबकी दफे मैंने सच बता दिया है।
इन्द्रदेव--यदि मैं वहाँ जाऊँ और बलभद्रसिंह न मिले तो!
जयपालसिंह--मिलने न मिलने से मुझे कोई मतलब नहीं, क्योंकि उस मकान में से ढूंढ़ निकालना आपका काम है, अगर आप ही पता लगाने में कसर कर जायेंगे, तो मेरा क्या कसूर ! हाँ, एक बात और है, इधर थोड़े दिन के अन्दर दारोगा ने किसी दूसरी जगह उन्हें रख दिया हो तो मैं नहीं जानता, मग र दारोगा का रोजनामचा यदि आपका मिल जाय और उसे पढ़ सकें तो बलभद्र सिंह के छूटने में कुछ कसर न रहे।
इन्द्रदेव--क्या दारोगा रोजनामचा बराबर लिखा करता था?
जयपालसिंह--जी हाँ, वह अपना रत्ती-रत्ती हाल रोजनामचे में लिखता था।
इन्द्रदेव--वह रोजनामचा क्योंकर मिलेगा?
जयपालसिंह--जमानिया के पक्के घाट के ऊपर ही एक तेली रहता है, उसका मकान बहुत बड़ा है और दारोगा की बदौलत वह भी अमीर हो गया है। उसका नाम भी जयपाल है और उसी के पास दारोगा का रोजनामचा है, यदि आप उससे ले सकें तो अच्छी बात है, नहीं तो कहिये मैं उसके नाम की एक चिट्ठी लिख दूंगा।
इन्द्रदेव--(कुछ सोचकर) बेशक, तुझे उसके नाम की एक चिट्ठी लिख देनी होगी, मगर इतना याद रखना कि यदि बात झूठ निकली तो मैं बड़ी दुर्दशा के साथ तेरी जान लूंगा!
जयपालसिंह--और अगर सच निकली तो क्या मैं छोड़ दिया जाऊँगा?
इन्द्रदेव--(मुस्कुराकर) हाँ, अगर तेरी मदद से बलभद्रसिंह को हम पा जायेंगे तो तेरी जान छोड़ दी जायगी, मगर तेरे दोनों पैर काट डाले जायेंगे या तेरी दूसरी आँख भी बेकाम कर दी जायगी।
जयपालसिंह--सो क्यों?
इन्द्रदेव--इसलिए कि तू फिर किसी काम के लायक न रहे और न किसी के साथ बुराई कर सके।
जयपालसिंह--फिर मुझे खाने को कौन देगा?