पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/१८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
182
 

का कुछ भी नहीं कर सकती। न मालूम इस मकान का और मेरा पता उसे कैसे मालूम हुआ और इतना कर गुजरने पर भी उसने मेरी जान क्यों छोड़ दी ? निःसन्देह इसमें भी कोई भेद है। उसने अगर मुझे छोड़ दिया तो सुखी रहने के लिए नहीं, बल्कि इसमें भी उसने कुछ अपना फायदा सोचा होगा।"

जमालो--बेशक ऐसा ही है, शुक्र करो कि वह तुम्हारी दौलत नहीं ले गया, नहीं तो बड़ा ही अंधेर हो जाता और तुम टुकड़े-टुकड़े को मोहताज हो जातीं। अब तुम इसका भी निश्चय रखो कि जैपालसिंह की जान कदापि नहीं बच सकती।

बेगम--बेशक ऐसा ही है, अब तुम्हारी क्या राय है?

जमालो--मेरी राय तो यही है कि अब तुम एक पल भी इस मकान में न ठहरो और अपनी जमा-पूंजी लेकर यहाँ से चल दो। तुम्हारे पास इतनी दौलत है कि किसी दूसरे शहर में आराम से रहकर अपनी जिन्दगी बिता सको, जहाँ वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों को जाने की जरूरत न पड़े!

बेगम--तुम्हारी राय बहुत ठीक है, तो क्या तुम दोनों मेरा साथ दोगी?

जमालो--मैं जरूर तुम्हारा साथ दूंगी।

नौरतन--मैं भी ऐसी अवस्था में तुम्हारा साथ नहीं छोड़ सकती। जब सुख के दिनों में तुम्हारे साथ रही तो क्या अब दुःख के जमाने में तुम्हारा साथ छोड़ दूंगी? ऐसा नहीं हो सकता।

वेगम--अच्छा, तो अब निकल भागने की तैयारी करनी चाहिए।

जमालो--जरूर।

इतने ही में मकान के बाहर बहुत से आदमियों के शोरगुल की आवाज इन तीनों को मालूम पड़ी। बेगम की आज्ञानुसार पता लगाने के लिए जमालो नीचे उतर गई और थोड़ी ही देर में लौट आकर बोली, "है है, गजब हो गया ! राजा साहब के सिपाहियों ने मकान को घेर लिया और तुम्हें गिरफ्तार करने के लिए आ रहे हैं।" जमालो इससे ज्यादा न कहने पाई थी कि धड़धड़ाते हुए वहुत से सरकारी सिपाही मकान के ऊपर चढ़ जाए और उन्होंने बेगम, नौरतन और जमालो को गिरफ्तार कर लिया।



12

काशीपुरी से निकल कर भूतनाथ ने सीधे चुनारगढ़ का रास्ता लिया। पहर दिन चढे तक भूतनाथ और बलभद्रसिंह घोड़े पर सवार बराबर चले गए और इस बीच में उन दोनों में किसी तरह की बातचीत न हुई। जब वे दोनों जंगल के किनारे पहुँचे तो बलभद्रसिंह ने भूतनाथ से कहा, "अब मैं थक गया हूँ। घोड़े पर मजबूती के साथ नहीं बैठ सकता। वर्षों की कैद ने मुझे बिल्कुल बेकाम कर दिया। अब मुझमें दस कदम भी चलने की हिम्मत नहीं। अगर कुछ देर तक कहीं ठहरकर आराम कर लेते तो अच्छा होता।"