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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/१९८

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पहुंची?

मैं अपना और अपनी अन्ना का किस्सा शुरू से आखीर तक पूरा-पूरा कह गयी जिसे सुनकर गदाधरसिंह का बचा-बचाया शक भी जाता रहा और उसे निश्चय हो गया कि मेरी माँ भी दारोगा के ही कब्जे में है।

सवेरा हो जाने पर हम लोग सुस्ताने और घोड़ों को आराम देने के लिए एक जगह कुछ देर तक ठहरे और फिर उसी तरह रथ पर सवार हो रवाना हुए। दोपहर होते-होते हम लोग एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ दो पहाड़ियों की तलहटी (उपत्यका) एक साथ मिली थी। वहाँ सभी को सवारी छोड़कर पैदल चलना पड़ा। मैं यह नहीं जानती कि सवारी के साथ वाले और घोड़े किधर रवाना किये गये या उनके लिए अस्तबल कहाँ बना हुआ था। मुझे और अन्ना को घुमाता और चक्कर देता हुआ गदाधरसिंह पहाड़ के दर में ले गया जहाँ एक छोटा-सा मकान अनगढ़ पत्थर के ढोकों से बना हुआ था, कदाचित् वह गदाधरसिंह का अड्डा हो। वहीं उसके कई आदमी थे जिनकी सूरत आज तक मुझे याद है। अब जो मैं विचार करती हूँ तो यही कहने की इच्छा होती है कि वे लोग बदमाशी, बेरहमी और डकैती के साँचे में ढले हुए थे तथा उनकी सुरत-शक्ल और पोशाक की तरफ ध्यान देने से डर मालूम होता था।

वहाँ पहुँचकर गदाधरसिंह ने मुझसे और अन्ना से कहा कि तुम दोनों बेखौफ होकर कुछ दिन तक आगम करो, मैं सरयू को छुड़ाने की फिक्र में जाता हूँ। जहाँ तक होगा, बहुत जल्द लौट आऊँगा। तुम दोनों को किसी तरह की तकलीफ न होगी, खाने पीने का सामान यहाँ मौजूद ही है और जितने आदमी यहां हैं, सब तुम्हारी खिदमत करने के लिए तैयार हैं इत्यादि बहुत-सी बातें गदाधरसिंह ने हम दोगों को समझाई और अपने आदमियों से भी बहुत देर तक बातें करता रहा। दो पहर दिन और तमाम रात गदाधरसिंह वहाँ रहा तथा सुबह के वक्त फिर हम दोनों को समझाकर जमानिया की तरफ रवाना हो गया।

मैं तो समझती थी कि अब मुझे पुनः किसी तरह की मुसीबत का सामना न करना पड़ेगा और मैं गदाधरसिंह की बदौलत अपनी मां तथा लक्ष्मीदेवी से भी मिलकर सदेव के लिए सुखी हो जाऊँगी, मगर अफसोस, मेरी मुराद पूरी न हई और उस दिन के बाद फिर मैंने गदाधरसिंह की सूरत भी न देखी। मैं नहीं कह सकती कि वह किसी आफत में फंस गया या रुपये की लालच ने उसे हम लोगों का भी दुश्मन बना दिया। इसका असल हाल उसी की जुबानी मालूम हो सकता है-यदि वह अपना हाल ठीक-ठीक कह दे.तो। अतः अब मैं यह बयान करती हूँ कि उस दिन के बाद मुझ पर क्या मुसीबतें गुजरों और मैं अपनी कां के पास तक क्योंकर पहुंची।

गदाधरसिंह के चले जाने के बाद आठ दिन तक तो मैं बेखौफ बैठी रही, पर नौवें दिन से मेरी मुसीबत की घड़ी फिर शुरू हो गई। आधी रात का समय था, मैं और अन्ना एक कोठरी में सोई हुई थीं, यकायक किसी की आवाज सुनकर हम दोनों की आँखें खुल गईं और तब मालूम हुआ कि कोई दरवाजे के बाहर किवाड़ खटखटा रहा है, अन्ना