ने उठकर दरवाजा खोला तो पण्डित मायाप्रसाद पर निगाह पड़ी। कोठरी के अन्दर चिराग जल रहा था और मैं पण्डित मायाप्रसाद को अच्छी तरह पहचानती थी।
इन्दिरा ने जब अपना किस्सा कहते-कहते पण्डित मायाप्रसाद का नाम लिया, तो राजा गोपाललसिंह चौंक गये और इन्होंने ताज्जुब में आकर इन्दिरा से पूछा, “पण्डित मायाप्रसाद कौन?'
इन्दिरा--आपके कोषाध्यक्ष (खजांची)।
गोपालसिंह--क्या उसने भी तुम्हारे साथ दगा की?
इन्दिरा--सो मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकती, मेरा हाल सुनकर कदाचित् आप कुछ अनुमान कर सकें। क्या मायाप्रसाद अब भी आपके यहाँ काम करते हैं?
गोपालसिंह--हाँ, है तो सही। मगर आजकल मैंने उसे किसी दूसरी जगह भेजा है। अतः अब मैं इस बात को बहुत जल्द सुनना चाहता हूं कि उसने तेरे साथ क्या व्यवहार किया?
हमारे पाठक महाशय पहले भी मायाप्रसाद का नाम सुन चुके हैं, सन्तति पन्द्रहवें भाग के तीसरे बयान में इनका जिक्र आ चुका है। तारासिंह के एक नौकर ने नानक की स्त्री श्यामा के प्रेमियों के नाम बताये थे। उन्हीं में इनका नाम भी दर्ज हो चुका है। ये महाशय जाति के कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे और अपने को ऐयार भी लगाते थे।
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इन्दिरा ने फिर अपना किस्सा कहना शुरू किय।
इन्दिरा--उस समय मैं मायाप्रसाद को देखकर बहुत खुश हुई और समझी कि मेरा हाल राजा साहब (आप) को मालूम हो गया है और राजा साहब ही ने इन्हें मेरे पास भेजा है। मैं जल्दी से उठकर उनके पास गई और मेरी अन्ना ने उन्हें दण्डवत करके कोठरी में आने के लिए कहा जिसके जवाब में पण्डितजी बोले, "मैं कोठरी के अन्दर नहीं आ सकता और न इतनी मोहलत है।"
मैं---क्यों?
मायाप्रसाद --मैं इस समय केवल इतना ही कहने आया हूँ कि तुम लोग जिस तरह बन पड़े अपनी जान बचाओ और जहाँ तक जल्दी हो सके, यहाँ से निकल भागो, क्योंकि गदाधरसिंह दुश्मनों के हाथ में फंस गया है और थोड़ी ही देर में तुम लोग भी गिरफ्तार होना चाहती हो।
मायाप्रसाद की बात सुनकर मेरे तो होश उड़ गये। मैंने सोचा कि अब अगर किसी तरह दारोगा मुझे पकड़ पावेगा, तो कदापि जीता न छोड़ेगा। आखिर अन्ना ने घबराकर पण्डितजी से पूछा, "हम लोग भागकर कहां जायें और किसके सहारे किधर भागें?" पण्डितजी ने कुछ सोचकर कहा, "अच्छा, तुम दोनों मेरे पीछे चली आओ।"