सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/२१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
216
 

की सूरत भला क्योंकर दिखाई दे सकती है, जो उसके सामने हो?

आनन्दसिंह--बेशक यह एक नई बात है। अगर किसी के सामने हम यह किस्सा बयान करें, तो वह यही कहेगा कि तुमको धोखा हुआ। जिन लोगों को तुमने आईने में देखा था वे तुम्हारे पीछे की तरफ से निकल गये होंगे और तुमने उस बात का खयाल न किया होगा। मगर नहीं, अगर वास्तव में ऐसा होता तो आईने में भी हम उन्हें अपने पीछे की तरफ से जाते हुए देखते। जरूर इसका सबब कोई दूसरा ही है, जो हम लोगों की समझ में नहीं आ रहा है।

इन्द्रजीतसिंह–-खैर, फिर अब किया क्या जाए? इस मंजिल से नीचे उतर जाने या किसी और तरफ जाने के लिए रास्ता भी तो दिखाई नहीं देता। (उँगली का इशारा करके) सिर्फ वह एक निशान है, जहाँ से अपने-आप एक दरवाजा पैदा होगा या हम लोग दरवाजा पैदा कर सकते हैं। मगर वह दरवाजा उसी अजदहे वाली कोठरी का है, जिसमें जाने के लिए हम लोग यहां आए हैं।

आनन्दसिंह--ठीक है, मगर क्या हम लोग तिलिस्मी खंजर से इस शीशे को तोड़ या काट नहीं सकते?

इन्द्रजीतसिंह--जरूर काट सकते हैं। मगर यह कार्रवाई अपने मन की होगी।

आनन्दसिंह--तो क्या हर्ज है, आज्ञा दीजिए तो मैं एक हाथ शीशे पर लगाऊँ!

इन्द्रजीतसिंह–-सो ही कर देखो। मगर कहीं कोई बखेड़ा न पैदा हो!

अब जो होना हो सो हो !” इतना कहकर आनन्दसिंह तिलिस्मी खंजर लिए हुए आईने की तरफ बढ़े। उसी वक्त एक आवाज हुई और बाएँ तरफ की शीशे वाली दीवार में ठीक उसी जगह एक छोटा-सा दरवाजा निकल आया जहाँ कुमार ने हाथ का इशारा करके आनन्दसिंह को बताया था; मगर दोनों कुमारों ने उसके अन्दर जाने का खयाल भी न किया और आनन्दसिंह ने तिलिस्मी खंजर का एक भरपूर हाथ अपने सामने वाले शीशे पर लगाया। जिसका नतीजा यह हुआ कि शीशे का एक बहुत बड़ा टुकड़ा भारी आवाज देकर पीछे की तरफ हट गया और आनन्दसिंह इस तरह उसके अन्दर घुस गए जैसे हवा के किसी खिंचाव या बवन्डर ने उन्हें अपनी तरफ खींच लिया हो। इसके बाद वह शीशे का टुकड़ा फिर ज्यों-का-त्यों बराबर मालूम होने लगा।

हवा के खिंचाव का असर कुछ-कुछ इन्द्रजीतसिंह पर भी पड़ा। मगर वे दूर खड़े थे, इसलिए खिच कर वहाँ तक न जा सके, पर आनन्द सिंह उसके पास होने के कारण खिच कर अन्दर चले गये।

आनन्दसिंह का यकायक इस तरह आफत में फंस जाना बहुत ही बुरा हुआ, इस बात का जितना रंज इन्द्रजीतसिंह को हुआ सो वे ही जान सकते हैं। उनकी आँखों में आँसू भर आये और वे बेचैन होकर धीरे से बोले -"अब जब तक कि मैं इस शीशे के अन्दर न चला जाऊँगा अपने भाई को छुड़ा न सकूँगा और न इस बात का ही पता लगा सकूँगा कि उस पर क्या मुसीबत आई।" इतना कह वे तिलिस्मी खंजर लिए हुए शीशे की तरफ बढ़े मगर दो ही कदम जाकर रुक गये और सोचने लगे, "कहीं ऐसा न हो कि जिस मुसीबत में आनन्द पड़ गया है, उसी मुसीबत में मैं भी फंस जाऊँ ! यदि