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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/२१७

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ऐसा हुआ तो हम दोनों इसी तिलिस्म में मर कर रह जायेंगे ! यहाँ कोई ऐसा भी नहीं जो हम लोगों की सहायता करेगा, लेकिन अगर ईश्वर की कृपा से तिलिस्म के इस दर्जे को मैं अकेला तोड़ सकू तो निःसन्देह आनन्द को छुड़ा लूंगा। मगर कहीं ऐसा न हो कि जब तक हम तिलिस्म तोड़ें तब तक आनन्द की जान पर आ बने ? बेशक इस आवाज ने हम लोगों को धोखे में डाल दिया, हमें तिलिस्मी बाजे पर पूरा भरोसा करके बेखौफ अजदहे के मुंह में चले जाना चाहिए था।" इत्यादि तरह-तरह की बातें सोचकर इन्द्र- जीतसिंह रुक गये और आनन्दसिंह की जुदाई में आँसू गिराते हुए उसी अजदहे वाली कोठरी में चले गये जिसका दरवाजा पहले ही खुल चुका था।

उस कोठरी में सिवाय उस एक अजदहे के और कुछ भी न था। इस अजदहे को मोटाई दो गज घेरे से कम न होगी। उसका खुला मुंह इस योग्य था कि उद्योग करने से आदमी उसके पेट में बखूबी घुस जाय। वह एक सोने के चबूतरे के ऊपर कुण्डली मारे वैठा था और अपने डील-डौल और खुले हुए भयानक मुँह के कारण बहुत ही डरावना मालूम पड़ता था। झूठा और बनावटी मालूम हो जाने पर भी उसके पास जाना या खड़ा होना बड़े जीवट का काम था।

इन्द्रजीतसिंह बेखौफ उस अजदहे के मुंह में घुस गए और कोशिश करके आठ या नौ हाथ के लगभग नीचे उतर गए। इस बीच में उन्हें गर्मी तथा सांस लेने की तंगी से बहुत तकलीफ हुई और उसके बाद उन्हें नीचे उतरने के लिए दस-बारह सीढ़ियाँ मिलीं। नीचे उतरने पर कई कदम एक सुरंग में चलना पड़ा और इसके बाद वे उजाले में पहुँचे।

अब जिस जगह इन्द्रजीतसिंह पहुँचे वह एक छोटा-सा तिमंजिला मकान संग- मर्मर के पत्थरों से बना हुआ था, जिसका ऊपरी हिस्सा बिल्कुल खुला हुआ था, अर्थात् चौक में खड़े होने से आसमान दिखाई देता था। नीचे वाले खंड में जहाँ इन्द्रजीतसिंह खड़े थे चारों तरफ चार दालान थे और चारों दालान अच्छे बेशकीमत सोने के जड़ाऊ सिंहासनों, नुमाइशी बर्तनों तथा हों से भरे थे। कुमार उस बेहिसाब दौलत तथा अन- मोल चीजों को देखते हुए जब बाईं तरफ वाले दालान में पहुँचे तो यहाँ की दीवार में भी उन्होंने एक छोटा-सा दरवाज़ा देखा। झाँकने से मालूम हुआ कि ऊपर के खण्ड में जाने के लिए सीढ़ियाँ हैं। कुँअर इन्द्रजीतसिंह सीढ़ियों की राह ऊपर चढ़ गये। उस खण्ड में भी चारों तरफ दालान थे। पूरब तरफ वाले दालान में कल-पुरजे लगे हुए थे, उत्तर तरफ वाले दालान में एक चबूतरे के ऊपर लोहे का एक सन्दूक ठीक उसी ढंग का था जैसा कि तिलिस्मी बाजा कुमार देख चुके थे। दविखन तरफ वाले दालान में कई पुत- लियाँ खड़ी थीं जिनके पैरों में गड़ारीदार पहिये की तरह बना हुआ था, जमीन में लोहे की नालियाँ जड़ी हुई थी और नालियों में पहिया चढ़ा हुआ था अर्थात् वे पुतलियाँ इस लायक थीं कि पहियों पर नालियों की बरकत से बँधे हुए (महदूद) स्थान तक चल-फिर सकती थीं, और पश्चिम की तरफ वाले दालान में सिवाय एक शीशे की दीवार के और कुछ भी दिखाई नहीं देता था।

उन पुतलियों में कुमार ने कई अपने जान-पहचान वाले और संगी-साथियों की की मूरतें भी देखी। उन्हीं में भैरोंसिंह, तारासिंह, कमलिनी, लाड़िली, राजा गोपाल-