यह भी सोचने लगे कि 'ये हमारे संगी-साथियों और मुलाकातियों की मूरतें पुरानी बनी हुई हैं या उन तस्वीरों की तरह इन्हें भी राजा गोपालसिंह ने स्थापित किया है, और इन मूरतों का चलना-फिरना तथा इस बाजे का बोलना किसी खास वक्त पर मुकर्रर है या घण्टे-घण्टे दो-दो घण्टे पर ऐसा ही हुआ करता है ? मगर नहीं, घड़ी-घड़ी व्यर्थ ऐसा होना अनुचित है। तो क्या जब शीशे वाले कमरे में कोई जाता है तभी ऐसी बातें होती हैं ! क्यों- कि हम लोगों के वहां पहुंचने पर यही दृश्य देखने में आया था। अगर मेरा यह खयाल ठीक है तो अब भी उस शीशे वाले कमरे में कोई पहुँचा होगा। किसी गैर आदमी का वहाँ पहुँचना तो असम्भव है। अगर कोई वहाँ पहुँचता है तो चाहे वह आनन्दसिंह हों या राजा गोपालसिंह हों। कौन ठिकाना, फिर किसी कारण से आनन्दसिंह वहाँ जा पहुँचा हो। जिस तरह इस बाजे की आवाज उस कमरे में पहुँचती है उसी तरह मेरी आवाज भी वहाँ वाला सुन सकता है।' इत्यादि बातें कुमार ने जल्दी-जल्दी सोची और इसके बाद ऊँचे स्वर में बोले, "शीशे वाले कमरे में कौन है?"
जवाब--मैं हूँ आनन्दसिंह, क्या मैं भाई साहब की आवाज सुन रहा हूँ ?
इन्द्रजीतसिंह–-हाँ, मैं यहाँ आ पहुँचा हूँ, तुम भी जहाँ तक जल्दी हो सके उस अजदहे के मुँह में चले जाओ और हमारे पास पहुँचो।
जवाब--बहुत अच्छा।
7
किस्मत जब चक्कर खिलाने लगती है तो दम भर भी सुख की नींद सोने नहीं देती। इसकी बुरी निगाह के नीचे पड़े हुए आदमी को तभी कुछ निश्चिन्ती होती है जब इसका पूरा दौर (जो कुछ करना हो करके) बीत जाता है। इस किस्से को पढ़कर पाठक इतना तो जान ही गए होंगे कि इन्द्रदेव भी सुखियों की पंक्ति में गिने जाने लायक नहीं है। वह भी जमाने के हाथों से अच्छी तरह सताया जा चुका है परन्तु उस जवाँमर्द की आँखों में बहुत-सी रातें उन दिनों की भी बीत चुकी हैं जबकि उसका मजबूत दिल कई तरह की खुशियों से नाउम्मीद होकर 'हरि इच्छा' का मन्त्र जपता हुआ एक तरह से वेफिक्र हो वैठा था, मगर आज उसके आगे फिर बड़ी दुःखदायी घड़ी पहले से दूना विकराल रूप धारण करके आ खड़ी हुई है। इतने दिन तक वह यह समझकर कि उसकी स्त्री और लड़की इस दुनिया से कूच कर गईं, सब्र करके बैठा हुआ था, लेकिन जब से उसे अपनी स्त्री और लड़की के इस दुनिया में मौजूद रहने का कुछ हाल और आपस वालों की बेईमानी का पता मालूम हुआ है तब से अफसोस, रंज और गुस्से से उसके दिल की अजब हालत हो रही है।
लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाड़िली को समझा-बुझाकर जब इन्द्रदेव बलभद्रसिंह को छुड़ाने की नीयत से जमानिया की तरफ रवाना हुए, तो पहाड़ी के नीचे पहुँचकर उन्होंने अपने अस्तबल से एक उम्दा घोड़ा खोला और उस पर सवार हो पाँच ही सात