कदम आगे बढ़े थे कि राजा गोपालसिंह का भेजा हुआ एक सवार आ पहुंचा जिसने सलाम करके एक चिट्ठी उनके हाथ में दी और उन्होंने उसे खोलकर पढ़ा।
इस चिट्ठी में राजा गोपालसिंह ने यही लिखा था, "यह सुनकर आपको बड़ा आश्चर्य होगा कि आज कल इन्दिरा मेरे घर में है और उसकी माँ भी जीती है जो यद्यपि तिलिस्म में फंसी हुई है मगर उसे अपनी आँखों से देख आया हूँ। अस्तु, आप पत्र पढ़ते ही अकेले मेरे पास चले आइये।"
इस चिट्ठी को पढ़कर इन्द्रदेव कितना खुश हुए होंगे, यह हमारे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। अस्तु, वे तेजी के साथ जमानिया की तरफ रवाना हुए और समय से पहले ही जमानिया जा पहुँचे। जब राजा गोपालसिंह को उनके आने की खबर हुई तो वे दरवाजे तक आकर बड़ी मुहब्बत से इन्द्रदेव को घर के अन्दर ले गये और गले से मिल- कर अपने पास बैठाया तथा इन्दिरा को बुलवा भेजा। जब इन्दिरा को अपने पिता के आने की खबर मिली, दौड़ती हुई राजा गोपालसिंह के पास आई और अपने पिता के पैरों पर गिरकर रोने लगी। इस समय कमरे के अन्दर राजा गोपालसिंह, इन्द्रदेव और इन्दिरा के सिवाय और कोई भी न था। कमरे में एकान्त कर दिया गया था, यहाँ तक कि जो लौंडी इन्दिरा को बुलाकर लाई थी वह भी बाहर कर दी गई थी।
इन्दिरा के रोने ने राजा गोपालसिंह और इन्द्रदेव का कलेजा हिला दिया और वे दोनों भी रोने से अपने को बचा न सके। आखिर उन्होंने बड़ी मुश्किल से अपने को सम्हाला और इन्दिरा को दिलासा देने लगे। थोड़ी देर बाद इन्दिरा का जी ठिकाने हुआ तो इन्द्रदेव ने उसका हाल पूछा और उसने अपना दर्दनाक किस्सा कहना शुरू किया।
इन्दिरा का हाल जो कुछ ऊपर के बयान में लिख चुके हैं, वह और उसके बाद का अपना तथा अपनी माँ का बचा हुआ किस्सा भी इन्दिरा ने बयान किया जिसे सुन- कर इन्द्रदेव की आँखें खुल गईं और उन्होंने एक लम्बी साँस लेकर कहा--
"अफसोस, हरदम साथ रहने वालों की जब यह दशा है तो किस पर विश्वास किया जाय ! खैर, कोई चिन्ता नहीं।"
गोपालसिंह—मेरे प्यारे दोस्त, जो कुछ होना था सो हो गया। अब अफसोस करना वृथा है। क्या मैं उन राक्षसों से कुछ कम सताया गया हूँ ? नहीं, ईश्वर न्याय करने वाला है, और तुम देखोगे कि उनका पाप उन्हें किस तरह खाता है। रात बीत जाने पर मैं इन्दिरा की माँ से भी तुम्हारी मुलाकत कराऊँगा। अफसोस, दुष्ट दारोगा ने उसे ऐसी जगह पहुँचा दिया है कि जहाँ से वह स्वयं तो निकल ही नहीं सकती, मैं खुद तिलिस्म का राजा कहला कर भी उसे छुड़ा नहीं सकता। लेकिन अब कुंअर इन्द्रजीत सिंह और आनन्दसिंह उस तिलिस्म को तोड़ रहे हैं, आशा है कि वह बेचारी भी बहुत जल्द इस मुसीबत से छूट जायगी।
इन्द्रदेव--क्या इस समय मैं उसे नहीं देख सकता?
गोपालसिंह--नहीं, यदि दोनों कुमार तिलिस्म तोड़ने में हाथ न लगा चुके होते तो शायद मैं ले भी चलता, मगर अब रात के वक्त वहाँ जाना असम्भव है।