भी न खुला। उस समय मैं बहुत ही घबड़ा गया और हाथ छुड़ाने के लिए जोर करने लगा। दस-बारह पल के बाद वह कड़ी पीछे की तरफ हटी और मुझे खींचती हुई दूर तक ले गई। मैं यह नहीं कह सकता कि कड़ियों के साथ ही दरवाजे का कितना बड़ा भाग पीछे की तरफ हटा था, मगर इतना मालूम हुआ कि मैं ढलवां जमीन की तरफ जा रहा। हूँ। आखिर जब उन कड़ियों का पीछे हटना बन्द हो गया तो मेरे दोनों हाथ भी छूट गए, इसके बाद थोड़ी देर तक घड़घड़ाहट की आवाज आती रही और तब तक चुप- चाप खड़ा रहा।
जब घड़घड़ाहट की आवाज बन्द हो गई, तो मैंने तिलिस्मी खंजर निकाल कर रोशनी की और अपने चारों तरफ गौर करके देखा। जिधर से ढलवां जमीन उतरती हुई वहाँ तक पहुंची थी, उस तरफ अर्थात् पीछे की तरफ बिना चौखट का एक बन्द दरवाजा पाया, जिससे मालूम हुआ कि अब मैं पीछे की तरफ नहीं हट सकता, मगर दाहिनी तरफ एक और दरवाजा देखकर मैं उसके अन्दर चला गया और दो कदम के बाद घूमकर फिर मुझे ऊँची जमीन अर्थात् चढ़ाव मिला, जिससे साफ मालूम हो गया कि मैं जिधर से उतरता हुआ आया था, अब उसी तरफ पुनः जा रहा हूँ। कई कदम जाने के बाद पुनः एक बन्द दरवाजा मिला, मगर वह आपसे आप खुल गया। जब मैं उसके अन्दर गया, तो अपने को उसी शीशे वाले कमरे में पाया और घूमकर पीछे की तरफ देखा तो साफ दीवार नजर पड़ी। यह नहीं मालूम होता था कि मैं किसी दरवाजे को लाँघ- कर कमरे में आ पहुँचा हूँ, इसी से मैं कहता हूँ कि तिलिस्म बनाने वाले मसखरे भी थे, क्योंकि उन्हीं की चालाकियों ने मुझे घुमा-फिराकर पुनः उसी कमरे में पहुँचा दिया जिसे एक तरह की जबरदस्ती कहना चाहिए।
मैं उस कमरे में खड़ा हुआ ताज्जुब से उसी शीशे की तरफ देख रहा था कि पहले की तरह दो आदमियों की बातचीत की आवाज सुनाई दी। मैं आपके साथ जब उस कमरे में था, तब जो बातें सुनने में आयी थीं, ही पुनः सुनीं और जिन लोगों को उस आईने के अन्दर आते-जाते देखा था, उन्हीं को पुनः देखा भी। निःसन्देह मुझे बड़ा ही ताज्जुब हुआ और मैं बड़े गौर से तरह-तरह की बातों को सोच रहा था कि इतने ही में आपकी आवाज सुनाई दी और आपकी आज्ञानुसार अजदहे के मुंह में जाकर यहाँ तक आ पहुँचा। आप यहाँ किस राह से आए हैं ?
इन्द्रजीतसिंह-मैं भी अजदहे के मुँह में होता हुआ आया हूँ और यहाँ आने पर मुझे जो-जो बातें मालूम हुई हैं उनसे शीशे वाले कमरे का कुछ भेद मालूम हो गया।
आनन्दसिंह-सो क्या ?
इन्द्रजीतसिंह-मेरे साथ आओ, मैं सब तमाशा तुम्हें दिखाता हूँ।
अपने छोटे भाई को साथ लिए कुंअर इन्द्रजीतसिंह नीचे के खण्ड वाली सब चीजों को दिखाकर ऊपर वाले खण्ड में गये और वहाँ का बिल्कुल हाल कहा। बाजा और मूरत इत्यादि भी दिखाया और बाजे के बोलने तथा मूरत के चलने-फिरने के विषय में भी अच्छी तरह समझाया जिससे इन्द्रजीतसिंह की तरह आनन्दसिंह का भी शक जाता रहा। इसके बाद आनन्दसिंह ने पूछा, "अब क्या करना चाहिए ?"