सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/२२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
223
 

इन्द्रजीतसिंह-यहाँ से बाहर निकलने के लिए दरवाजा खोलना चाहिए। मैं यह निश्चय कर चुका हूँ कि इस खण्ड के ऊपर जाने के लिए कोई रास्ता नहीं है और न ऊपर जाने से कुछ काम ही चलेगा, अतएव हमें पुनः नीचे वाले खण्ड में चलकर दरवाजा ढूंढ़ना चाहिए, या तुमने अगर कोई बात सोची हो, तो कहो।

आनन्दसिंह-मैं तो यह सोचता हूँ कि हम आखिर तिलिस्म तोड़ने के लिए ही यहाँ आए हैं इसलिए जहाँ तक बन पड़े, यहाँ की चीजों को तोड़-फोड़ और नष्ट-भ्रष्ट करना चाहिए, इसी बीच में कहीं-न-कहीं कोई दरवाजा दिखाई दे ही जायेगा।

इन्द्रजीतसिंह --(मुस्कराकर) यह भी एक बात है, खैर, तुम अपने ही खयाल के मुताबिक कार्रवाई करो, हम तमाशा देखते हैं।

आनन्दसिंह-बहुत अच्छा, तो आइये, पहले उस दरवाजे को खोलें, जिसके अन्दर पुतलियाँ जाती हैं।

इतना कहकर आनन्दसिंह उस दालान में गये, जिसमें कमलिनी, लाड़िली तथा और ऐयारों की मूरतें थीं। हम ऊपर लिख चुके हैं कि ये मूरतें लोहे की नालियों पर चल कर जब शीशे वाली दीवार के पास पहुँचती थीं तो वहां का दरवाजा आप-से-आप खुल जाता था। आनन्दसिंह भी उसी दरवाजे के पास गये और कुछ सोचकर उन्हीं नालियों पर पैर रखा जिन पर पुतलियाँ चलती थीं।

नालियों पर पैर रखने के साथ ही दरवाजा खुल गया और दोनों भाई उस दरवाजे के अन्दर चले गए। इन्हें वहाँ दो रास्ते दिखाई पड़े, एक दरवाजा तो बन्द था और जंजीर में एक भारी ताला लगा हुआ था और दूसरा रास्ता शीशे वाली दीवार की तरफ गया हुआ था, जिसमें पुतलियों के आने-जाने के लिए नालियाँ भी बनी हुई थीं। पहले दोनों कुमार पुतलियों के चलने का हाल मालूम करने की नीयत से उसी तरफ गए और वहां अच्छी तरह घूम-फिरकर देखने और जांच करने पर जो कुछ उन्हें मालूम हुआ उसका खुलासा हम नीचे लिखते हैं।

वहाँ शीशे की तीन दीवारें थी और हर एक के बीच में आदमियों के चलने-फिरने लायक रास्ता छूटा हुआ था। पहले शीशे की दीवार जो कमरे की तरफ थी, सादी थी अर्थात् उस शीशे के पीछे पारे की कलई की हुई न थी, हाँ उसके बाद वाली दूसरी शीशे वाली दीवार में कलई की हुई थी और वहाँ जमीन पर पुतलियों के चलने के लिए नालियाँ भी कुछ इस ढंग से बनी हुई थी कि बाहर वालों को दिखाई न पड़ें और पुत- लियाँ कलई वाले शीशे के साथ सटी हुई चल सकें। यही सबब था कि कमरे की तरफ से देखने वालों को शीशे के अन्दर आदमी चलता हुआ मालूम पड़ता था और उन नकली आदमियों की परछाईं भी जो शीशे में पड़ती थी, साथ सटे रहने के कारण देखने वाले को दिखाई नहीं पड़ती थी। मूरतें आगे जाकर घूमती हुई दीवार के पीछे चली जाती थीं, जिसके बाद फिर शीशे की दीवार थी और उस पर नकली कलई की हुई थीं। इस गली में भी नाली बनी हुई थी उसी राह से मूरतें लौटकर अपने ठिकाने जा पहुँचती थी। इन सब चीजों को देखकर जब कुमार लौटे, तो बन्द दरवाजे के पास आये जिसमें

एक बड़ा-सा ताला लगा हुआ था। खंजर से जंजीर काट कर दोनों भाई उसके अन्दर