दो पहर रात बीतने से पहले ही लक्ष्मीदेवी को साथ लिए हुए बलभद्रसिंह वाग के अन्दर कर लिए गए और विवाह का कार्य आरम्भ कर दिया गया। बाग का जो हिस्सा दारोगा ने अपने अधिकार में रखा उसमें एक सुन्दर सजी हुई कोठरी भी थी, जिसके नीचे एक तहखाना था। दारोगा की इच्छा से गोपालसिंह के कुल-देवता का स्थान उसी में नियत किया गया था और उसके नीचे वाले तहखाने में दारोगा ने हेलासिंह की लड़की मुन्दर को ठीक वैसे ही कपड़े पहनाकर छिपा रखा था जैसे बलभद्रसिंह ने लक्ष्मीदेवी के लिए बनाये थे और जिन्हें चालाक दजियों के सहित दारोगा अच्छी तरह देख आया था।
बलभद्रसिंह का दोस्त केवल दारोगा ही न था बल्कि दारोगा के गुरुभाई इन्द्रदेव से भी उनकी मित्रता थी और उन्हें निश्चय था कि इस विवाह में इन्द्रदेव भी अवश्य आवेगा क्योंकि राजा गोपालसिंह भी इन्द्रदेव को मानते और उसकी इज्जत करते थे। परन्तु बलभद्रसिंह को बड़ा ही आश्चर्य हुआ जब विवाह का समय निकट आ जाने पर भी उन्होंने इन्द्रदेव को वहाँ न देखा। जब उसने दारोगा से पूछा तो उसने इन्द्रदेव की चिट्ठी दिखाई जिसमें यह लिखा था "कि मैं बीमार हूँ इसलिए विवाह में उपस्थित नहीं हो सकता और इसलिए आपसे तथा राजा साहब से क्षमा माँगता हूँ।"
जब कन्यादान हो गया तो पण्डित जी की आज्ञानुसार लक्ष्मीदेवी को लिए हुए राजा गोपाल सिंह उस कोठरी में आए जहाँ कुल-देवता का स्थान बनाया गया था और वहाँ भी पण्डित ने कई तरह की पूजा कराई। इसके बाद पण्डित की आज्ञानुसार लक्ष्मी देवी को छोड़ गोपालसिंह उस कोठरी से बाहर आए और वे लौंडियाँ भी बाहर कर दी गयीं जो लक्ष्मीदेवी के साथ थीं। उस समय पानी बड़े जोर से बरसने लगा था और हवा बड़ी तेज चलने लगी, इस सबब से जितने आदमी वहाँ थे सब छितर-बितर हो गये और जिसको जहाँ जगह मिली वहाँ जा घुसा। दारोगा तथा पण्डित की आज्ञानुसार बलभद्र- सिंह पालकी में सवार हो अपने डेरे की तरफ रवाना हो गए, इधर गोपालसिंह दूसरे कमरे में जाकर गद्दी पर बैठे रहे और रंडियों का नाच शुरू हुआ। जितने आदमी उस बाग में थे, उसी महफिल की तरफ जा पहुँचे, और नाच देखने लगे और इस सबब से दारोगा को भी अपना काम करने का बहुत अच्छा मौका मिल गया। वह उस कोठरी में घुसा जिसमें लक्ष्मीदेवी थी, उसे पूजा कराने के बहाने से तहखाने के अन्दर ले गया और तहखाने में से मुन्दर को लाकर लक्ष्मीदेवी की जगह बैठा दिया। उसी समय लक्ष्मीदेवी को मालूम हुआ कि चालबाजी खेली गई है और बदकिस्मती ने आकर उसे घेर लिया। यद्यपि वह बहुत चिल्लाई और रोई मगर उसकी आवाज तहखाने और उसके ऊपर वाली कोठरी को भेदकर उन लोगों के कानों तक न पहुँच सकी जो कोठरी के बाहर दालान में पहरा दे रहे थे या महफिल में बैठे रंडी का नाच देख रहे थे। तहखाने के अन्दर से एक रास्ता वाग के बाहर निकल जाने का था जिसके खुले रहने का इन्तजाम दारोगा ने पहले ही से कर रखा था और दारोगा के आदमी गुप्तरीति से बाहरी दरवाजे के आस- पास मौजूद थे। दारोगा ने लक्ष्मीदेवी के मुह में कपड़ा लूंसकर उसे हर तरह से लाचार कर दिया और इस सुरंग की राह बाग के बाहर पहुँचा और अपने आदमियों के हवाले कर दरवाजा बन्द करता हुआ लौट आया। घण्टे ही भर के बाद लक्ष्मीदेवी ने अपने को