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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/३०

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दारोगा ने हेलासिंह के साथ ही साथ मुन्दर को भी यह कह रखा था कि "देखो बलभद्र- सिंह और लक्ष्मीदेवी मेरे कब्जे में हैं। जिस दिन तुम मुझसे बेमुरौवती करोगी या मेरे हुक्म से सिर फेरोगी उस दिन मैं लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह को प्रकट करके तुम दोनों को जहन्नुम में भेज दूंगा।"

निःसन्देह दोनों कैदियों को कैद रखकर दारोगा ने बहुत दिनों तक फायदा उठाया और मालामाल हो गया, मगर साथ ही इसके मुन्दर की शादी के महीने ही भर बाद दारोगा की चालाकियों ने और लोगों को यह भी विश्वास दिला दिया कि बलभद्र- सिंह डाकुओं के हाथ से मारा गया। यह खबर जब बलभद्रसिंह के घर में पहुँची तो उसकी साली और दोनों लड़कियों के रंज की हद न रही। बरसों बीत जाने पर भी उसकी आंखें सदा तर रहा करती थीं, मगर मुन्दर जो लक्ष्मीदेवी के नाम से मशहूर हो रही थी लोगों को यह विश्वास दिलाने के लिए कि 'मैं वास्तव में कमलिनी और लाडिली की बहिन हूँ' उन दोनों के पास हमेशा तोहफे और सौगातें भेजा करती थी। और कमलिनी और लाड़िली भी जो यद्यपि बिना माँ-बाप की हो गई थीं, परन्तु अपनी मौसी की बदौलत, जो उन दोनों को अपने से बढ़कर मानती थी और जिसे वे दोनों भी अपनी मां की तरह मानती थीं, बराबर सुख के साथ रहा करती थी। मुन्दर की शादी के तीन वर्ष बाद कमलिनी और लाड़िली की मौसी कुटिल काल के गाल में जा पड़ी। इसके थोड़े ही दिन बाद मुन्दर ने कमलिनी और लाड़िली को अपने यहां बुला लिया और इस तरह खातिरदारी के साथ रखा कि उन दोनों के दिल में इस बात का शक तक न होने पाया कि मुन्दर वास्तव में हमारी बहिन लक्ष्मीदेवी नहीं है। यद्यपि लक्ष्मीदेवी की तरह मुन्दर भी बहुत खूबसूरत और हसीन थी, मगर फिर भी सूरत-शक्ल में बहुत-कुछ अंतर था, लेकिन कमलिनी और लाडिली ने इसे जमाने का हेर-फेर समझा, जैसा कि हम ऊपर के किसी बयान में लिख आए हैं।

यह सब कुछ हुआ मगर मुन्दर के दिल में, जिसका नाम राजा गोपालसिंह की बदौलत मायारानी हो गया था, दारोगा का खौफ बना ही रहा और वह इस बात से डरती ही रही कि कहीं किसी दिन दारोगा मुझसे रंज होकर सारा भेद राजा गोपाल- सिंह के आगे न खोल दे। इस बला से बचने के लिए उसे इससे बढ़कर कोई तरकीब न सूझी कि राजा गोपाल सिंह को ही इस दुनिया से उठा दे और स्वयं राजरानी बनकर दारोगा पर हुकूमत करे। उसकी ऐयाशी ने उसके इस खयाल को और भी मजबूत कर दिया और यही वह जमाना था जब कि एक छोकरे पर जिसका परिचय धनपत के नाम से पहले के बयानों में दिया जा चुका है, उसका दिल आ गया और उसके विचार की जड़ बड़ की तरह मजबूती पकड़ती चली गई थी। उधर दारोगा भी बेफिक्र नहीं था। उसे भी अपना रंग चोखा करने की फिक्र लग रही थी, यद्यपि उसने लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह को एक ही कैदखाने में कैदकिया हुआ था। मगर वह लक्ष्मीदेवी को भी धोखे में डाल कर एक नया काम करने की फिक्र में पड़ा हुआ था और चाहता था कि बलभद्रसिंह को लक्ष्मीदेवी से इस ढंग पर अलग कर दे कि लक्ष्मीदेवी को किसी