पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/४४

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मुझसे कहा बल्कि उस राह से निकल जाने की तरकीब भी बताई मगर धनपत जो कुन्दन के नाम से यहीं रहती थी बराबर मेरे काम में बाधा डाला करती और मैं भी इस फिक्र में लगी थी कि किसी तरह उसे दबाना चाहिए जिसमें वह मेरा मुकाबला न कर सके।

एक दिन आधी रात के समय मैं अपने कमरे से निकल कर कुन्दन के कमरे की तरफ चली। जब उसके पास पहुंची तो किसी आदमी के पैर की आहट मिली जो कुन्दन की तरफ जा रहा था। मैं रुक गई और वह आदमी कुछ आगे बढ़कर कुन्दन के पास पहुंचा जिसमें कुन्दन रहती थी। उसकी कुर्सी बहुत ऊँची थी, पाँच सीढ़ियाँ चढ़ कर सहन में पहुँचना होता था और उसके बाद कमरे के अन्दर जाने का दरवाजा था। वह कमरा अभी तक मौजूद है, शायद आप उसे देखें। सीढ़ियों के दोनों बगल चमेली की घनी टट्टी थी, मैं उसी टट्टी में छिपकर उस आदमी के लौट आने की राह देखने लगी जो मेरे सामने ही उस मकान में गया था। आधा घण्टे के बाद वह आदमी कमरे के बाहर निकला, उस समय कुन्दन भी उसके साथ थी। जब वह सहन की सीढ़ियां उतरने लगा तो कुन्दन ने उसे रोक कर धीरे से कहा, "मैं फिर कहे देती हूँ कि आपसे मुझे बड़ी उम्मीद है। जिस तरह आप गुप्त राह से इस किले के अन्दर आते हैं, उसी तरह मुझे किशोरी के सहित निकाल तो ले जायेंगे ?" इसके जवाब में उस आदमी ने कहा, "हाँ- हाँ, इस बात का तो मैं तुमसे वादा ही कर चुका हूँ, अब तुम किशोरी को अपने काबू में करने का उद्योग करो, मैं तीसरे-चौथे दिन यहाँ आकर तुम्हारी खबर ले जाया करूँगा।" इस पर कुन्दन ने फिर कहा, “मगर मुझे इस बात की खबर पहले ही हो जाया करे कि आज आप आधी रात के समय यहाँ आवेंगे तो अच्छा हो।" इसके जवाब में उस आदमी ने अपनी जेब में से एक नारंगी निकालकर कुन्दन के हाथ में दी और कहा, "इसी रंग की नारंगी उस दिन तुम बाग उत्तर और पश्चिम वाले कोने में सन्ध्या के समय देखोगी जिस दिन तुमसे मिलने के लिए मैं यहां आने वाला होऊँगा।" कुन्दन ने वह नारंगी उसके हाथ से ले ली। सीढ़ियों के दोनों तरफ फूलों के गमले रक्खे हुए थे, उनमें से एक गमले में कुन्दन ने वह नारंगी रख दी और उस आदमी के साथ ही साथ थोड़ी दूर तक उसे पहुँचाने की नीयत से आगे की तरफ बढ़ गई। मैं छिपे-छिपे सब कुछ देख-सुन रही थी। जब कुन्दन आगे बढ़ गई और उस जगह निराला हुआ तब मैं झाड़ी के अन्दर से निकली और गमले में से उस नारंगी को लेकर जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाती हुई अपने मकान में चली आई। किशोरी अपना हाल कहते समय आपसे कह चुकी है कि एक दिन मैंने नारंगी दिखाकर कुन्दन को दबा लिया था।' यह वही नारंगी थी जिसे देखकर कुन्दन समझ गई कि मेरा भेद लाली को मालूम हो गया, यदि वह राजा साहब को इस बात की इत्तिला दे देगी और उस आदमी को, जो पुनः मेरे पास आने वाला है और जिसे इस बात की खबर नहीं है, गिरफ्तार करा देगी तो मैं मारी जाऊँगी, अस्तु उसे मुझसे दबना ही पड़ा क्योंकि वास्तव में यदि मैं चाहती तो कुन्दन के मकान में उस आदमी को गिरफ्तार करा देती, और उस समय महाराज दिग्विजयसिंह दोनों का सिर काटे बिना न रहते।

वीरेन्द्रसिंह--ठीक है, अब मैं समझ गया, अच्छा तो फिर यह भी मालूम हुआ