किशोरी और कामिनी का कोमल कलेजा दहलने लगा, और थरथर कांपने लगीं। राजा वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह वगैरह भी घबराकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।
इन्द्रदेव--दुश्मनों के आने में कोई शक नहीं !
वीरेन्द्रसिंह--खैर, क्या हर्ज है, लड़ाई से हम लोग डरते नहीं, अगर कुछ खयाल है तो केवल इतना ही कि तहखाने में पड़े रह कर वेवसी की हालत में जान न दे देनी न पड़े क्योंकि दरवाजों के बन्द होने की खबर सुनाई देती है। अगर दुश्मन लोग आ गये तब कोई हर्ज नहीं क्योंकि जिस राह से वे लोग आवेंगे, वही राह हम लोगों के निकल जाने के लिए भी होगी, हाँ पता लगाने में जो कुछ विलम्ब हो। (रुककर) लो, भैरों और देवीसिंह भी आ गये ! (दोनों ऐयारों से) कहो, क्या खबर है ?
देवीसिंह--दरवाजे बन्द हैं।
भैरोंसिंह--किले के बाहर निकल जाने वाला दरवाजा भी बन्द है ? तेजसिंह--खैर, कोई चिन्ता नहीं, अब तो दुश्मन का आ जाना ही हमारे लिए बेहतर है।
इन्द्रदेव--कहीं ऐसा न हो कि हम लोग तो दुश्मनों से लड़ने के फेर में जाये और दुश्मन लोग तीनों कैदियों को छुड़ा ले जायँ। अस्तु, पहले कैदियों का बन्दोबस्त करना चाहिए और इससे भी ज्यादा जरूरी (किशोरी, कामिनी इत्यादि की तरफ इशारा करके) इन ड़कियों की हिफाजत है।
कमलिनी–-मुझे छोड़कर और सभी की फिक्र कीजिये क्योंकि तिलिस्मी खंजर अपने पाग रख कर भी छिपे रहना मैं पसन्द नहीं करती, मैं लड़ेंगी और अपने खंजर की करामात देखूंगी।
वीरेन्द्रसिंह--नही-नहीं, हम लोगों के रहते हमारी लड़कियों को हौसला करने की कोई जरूरत नहीं है।
इन्द्रदेव----कोई हर्ज नहीं, आप कमलिनी के लिए चिन्ता न करें। मैं खुशी से देखना चाहता हूँ कि वर्षों मेहनत करके मैंने जो कुछ विद्या इसे सिखाई है उससे यह कहाँ तक फायदा उठा सकती है, खैर देखिये, मैं सभी का बन्दोबस्त कर देता हूँ।
इतना कहकर इन्द्रदेव ने ऐयारों की तरफ देखा और कहा, "इन कैदियों की आँखों पर शीघ्र पट्टी बाँधिये।” सुनने के साथ ही बिना कुछ सबब पूछे भैरोंसिंह, तारासिंह और देवीसिंह जंगले के अन्दर चले गये और बात-की-वात में तीनों कैदियों की आँखों पर पट्टियाँ बांध दीं। इसके बाद इन्द्रदेव ने छत की तरफ देखा, जहाँ लोहे की बहुत-सी कड़ियाँ लटक रही थीं। उन कड़ियों में से एक कड़ी को इन्द्र देव ने उछल कर पकड़ लिया और लटकते हुए ही तीन-चार झटके दिये जिससे वह कड़ी नीचे की तरफ खिच आई और इन्द्रदेव का पैर जमीन के साथ लग गया। वह कड़ी लोहे की एक जंजीर के साथ बँधी हुई थी जो खिचने के साथ ही नीचे तक खिच आई और जंजीर खिंच जाने से एक कोठरी का दरवाजा ऊपर की तरफ चढ़ गया जैसे पुल का तख्ता जंजीर खींचने से ऊपर की तरफ चढ़ जाता है। यह कोठरी उसी दालान में दीवार के साथ इस ढंग से ननी हुई थी कि दरवाजा बन्द रहने की हालत में इस बात का कुछ भी पता नहीं लग