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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/६४

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ऐसी अवस्था में मैं क्या कर सकूँगा ?

कल्याणसिंह--ठीक है मगर आपको तहखाने के कुछ रास्तों का हाल और वहाँ आने-जाने की तरकीब मैं सहज ही में समझा सकता हूँ।

शिवदत्त--सो कैसे?

कल्याणसिंह ने अपने पास पड़े हुए एक बटुए में से कलम-दवात और कागज निकाला और लालटेन को जो कुछ हट कर जल रही थी पास रखने के बाद कागज पर तहखाने का नक्शा खींचकर समझाना शुरू किया। उसने ऐसे ढंग से समझाया कि शिवदत्त को किसी तरह का शक न रहा और उसने कहा, "अब तो मैं बखूबी समझ गया।" उसी समय बगल से यह आवाज आई, "ठीक है, मैं भी समझ गया।"

वह पेड़ बहुत मोटा और जंगली लताओं के चढ़े होने से खूब घना हो रहा था। शिवदत्त और कल्याणसिंह की पीठ जिस पेड़ की तरफ थी, उसी की आड़ में कुछ देर से खड़ा एक आदमी उन दोनों की बातचीत सुन रहा और छिपकर उस नक्शे को भी देख रहा था। जब उसने कहा कि 'ठीक है, मैं भी समझ गया' तब ये दोनों चौके और घूमकर पीछे की तरफ देखने लगे, मगर एक आदमी के भागने की आहट के सिवाय और कुछ भी मालूम न हुआ।

कल्याणसिंह--लीजिये श्रीगणेश गया, निसःन्देह वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों को हमारा पता लग गया।

शिवदत्त--रात तो ऐसी ही मालूम होती है, लेकिन कोई चिन्ता नहीं, देखो हम बन्दोबस्त करते हैं।

कल्याणसिंह--अगर हम ऐसा जानते तो आपके ऐयारों को दूसरा काम सुपुर्द करके आगे बढ़ने की राय कदापि न देते।

शिवदत्त--धन्नूसिंह को बुलाना चाहिए।

इतना कहकर शिवदत्त ने ताली बजाई मगर कोई न आया और न किसी ने कुछ जवाब दिया। शिवदत्त को ताज्जुब मालूम हुआ और उसने कहा, "अभी तो हाथ में नंगी तलवार लिये यहाँ पहरा दे रहा था, फिर चला कहाँ गया ?" कल्याणसिंह जफील बजाई जिसकी आवाज सुनकर कई सिपाही दौड़ आये और हाथ जोड़ कर सामने खड़े हो गये। शिवदत्त ने एक सिपाही से पूछा, “धन्नू कहाँ गया है?"

सिपाही--मालूम नहीं हुजूर, अभी तो इसी जगह पर टहल रहे थे।

शिवदत्त--देखो कहाँ है, जल्द बुलाओ।

हुक्म पाकर वे सब चले गए और थोड़ी ही देर में वापस आकर बोले, "हुजूर, करीब में तो कहीं पता नहीं लगता।"

शिवदत्त--बड़े आश्चर्य की बात है। उसे दूर जाने की आज्ञा किसने दी ?

इतने ही में हांफत-काँपता धन्नूसिंह भी आ मौजूद हुआ जिसे देखते ही शिवदत्त ने पूछा, "तुम कहाँ चले गये थे !"

धन्नूसिंह--महाराज, कुछ न पूछिये, मैं तो बड़ी आफत में फंस गया था !

शिवदत्त--सो क्या ? और तुम बदहवास क्यों हो रहे हो ?

च० स०-4-4