पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/८४

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बाटिका में पैर नहीं रक्खा और इसकी रसीली कली को समीर के सत्संग से गुदगुदा कर खिल जाने का अवसर नहीं मिला, इसके सतीत्व की अनमोल गठरी पर किसी ने लालच में पड़कर मालिकाना दखल जमाने की नीयत से हाथ नहीं डाला और न इसने अपनी अनमोल अवस्था का किसी के हाथ सट्टा, ठीका या बीमा किया। इसके रूप के खजाने की चौकसी करने वाली बड़ी-बड़ी आँखों के निचले हिस्से में अभी तक ऊदी डोरी नहीं पड़ने पाई थी, और न उसकी गर्दन में स्वर-घंटिका का उभार ही दिखाई देता था। इस गोरी नायिका को देखकर कुंअर आनन्दसिंह भौचक्के से रह गए और ललचाही निगाह से इसे देखने लगे। इस औरत ने भी इन्हें एक दफे तो नजर भरकर देखा मगर साथ ही गर्दन नीची कर ली और पीछे की तरफ हटने लगी तथा धीरे-धीरे कुछ दूर जाकर किसी दीवार या दरवाजे के ओट में हो गई जिससे उस जगह फिर अँधेरा हो गया । आनन्दसिंह आश्चर्य, लालच और उत्कंठा के फेर में पड़े रहे, इसलिए खंजर की रोशनी की सहायता से दरवाजा लाँघ कर वे भी उसी तरफ गए जिधर वह नाज- नीन गई थी। अब जिस कमरे में कुंअर आनन्दसिंह ने पैर रक्खा वह बनिस्बत तस्वीरों वाले कमरे के कुछ बड़ा था और उसके दूसरे सिरे पर भी वैसा ही एक दूसरा दरवाजा था जैसा तस्वीर वाले कमरे में था। कुंअर साहब बिना इधर-उधर देखे उस दरवाजे तक चले गये मगर जब उस पर हाथ रखा तो बन्द पाया । उस दरवाजे में भी कोई जंजीर या ताला दिखाई न दिया जिसे खोलकर या तोड़कर वे दूसरी तरफ जाते । इससे मालूम हुआ कि इस दरवाजे का खोलना या बन्द करना उस दूसरी तरफ वाले के आधीन है। बड़ी देर तक आनन्दसिंह उस दरवाजे के पास खड़े होकर सोचते रहे, मगर इसके बाद जब पीछे की तरफ हटने लगे तो उस दरवाजे के खोलने की आहट सुनाई दी। आनन्दसिंह रुके और गौर से देखने लगे। इतने ही में एक और आवाज इस ढंग की आई जिसने आनन्दसिंह को विश्वास दिला दिया कि उस तरफ की जंजीर किसी ने तलवार या खंजर से काटी है। थोड़ी ही देर बाद दरवाजा खुला और कुंअर इन्द्रजीत- सिंह दिखाई पड़े । आनन्दसिंह को उस औरत के देखने की लालसा हद से ज्यादा थी और कुछ-कुछ विश्वास हो गया था कि अबकी दफे पुनः उसी औरत को देखेंगे, मगर उसके बदले में अपने बड़े भाई को देखा और देखते ही खुश होकर बोले, "मैंने तो समझा था कि आपसे जल्द मुलाकात न होगी परन्तु ईश्वर ने बड़ी कृपा की !"

इन्द्रजीतसिंह--मैं भी यही सोचे हुए था, क्योंकि कुएँ के अन्दर कूदने के बाद जब मैंने एक दरवाजे में पैर रक्खा दो-चार कदम जाने के बाद वह बन्द हो गया, तभी मैंने सोचा कि अब आनन्द से मुलाकात होना कठिन है।

आनन्दसिंह--मेरा भी यही हाल हुआ, जिस दरवाजे के अन्दर मैंने पैर रक्खा था वह भी दो ही चार कदम जाने के बाद बन्द हो गया था।

इसके बाद कुँअर इन्द्रजीतसिंह उस कमरे में चले आये जिसमें आनन्दसिंह थे। दोनों भाई एक-दूसरे से मिलकर बहुत खुश हुए और यों बातचीत करने लगे-

आनन्दसिंह--इस कोठरी में आपने किसी को देखा था?

इन्द्रजीतसिंह--(ताज्जुब से) नहीं तो!