एक सिंहासन पर मृगछाला बिछाए एक बहुत ही वृद्ध साधु महाशय बैठे हुए हैं जिनके भाव से साफ मालूम होता है कि महात्माजी ग्रन्थ का मतलब महाराज को समझा रहे हैं और महाराज बड़े गौर से सुन रहे हैं। उस तस्वीर के नीचे यह लिखा हुआ था-
"महाराज सूर्यकान्त और उनके गुरु सोमदत्त जिन्होंने इस तिलिस्म को बनाया और इसके कई हिस्से किये । महाराज के दो लड़के थे-एक का नाम धीरसिंह, दूसरे का नाम जयदेवसिंह । जब इस हिस्से की उम्र समाप्त होने पर आवेगी, तब धीरसिंह के खानदान में गोपालसिंह और जयदेवसिंह के खानदान में इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह होंगे और नाते में वे तीनों भाई होंगे। इसलिए इस तिलिस्म के दो हिस्से किये गए जिनमें से आधे का मालिक गोपालसिंह होगा और आधे के मालिक इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह होंगे, लेकिन यदि उन तीनों में मेल न होगा तो इस तिलिस्म से सिवाय हानि के किसी को भी फायदा न होगा अतएव चाहिए कि वे तीनों भाई आपस में मेल रक्खें और इस तिलिस्म से फायदा उठावें । इन तीनों के हाथ से इस तिलिस्म के कुल बारह दों में से सिर्फ तीन टूटेंगे और बाकी के नौ दों के मालिक उन्हीं के खानदान में कोई दूसरे होंगे। इसी तिलिस्म में से कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को एक ग्रन्थ प्राप्त होगा जिसकी बदौलत वे दोनों भाई चरणाद्रि (चुनारगढ़) के तिलिस्म को तोड़ेंगे।"
इसके बाद कुछ और भी लिखा हुआ था मगर अक्षर इतने बारीक थे कि पढ़ा नहीं जाता था। यद्यपि उनके पढ़ने का शौक आनन्द सिंह को बहुत हुआ मगर लाचार : होकर रह गए। उस तस्वीर के बाईं तरफ जो तस्वीर थी उसके नीचे केवल 'धीरसिंह' लिखा हुआ था और दाहिनी तरफ वाली तस्वीर के नीचे 'जयदेवसिंह' लिखा हुआ था। उन दोनों की तस्वीरें नौजवानी के समय की थीं। उसके बाद क्रमशः और भी तस्वीरें थीं और सभी के नीचे नाम लिखा हुआ था । कुँअर आनन्दसिंह बाजे की सुरीली आवाज सुनते जाते थे और तस्वीरों को भी देखते जाते थे। जब इन तस्वीरों को देख चुके तो अन्त में राजा गोपालसिंह, अपनी और अपने भाई की तस्वीर भी देखी और इस काम में उन्हें कई घंटे लग गए।
इस कमरे में जिस दरवाजे से कुँअर आनन्दसिंह गये थे उसी के ठीक सामने एक दरवाजा और था जो बन्द था और उसकी जंजीर में ताला लगा हुआ था । जब वे घूमते हुए उस दरवाजे के पास गए तब मालूम हुआ कि इसकी दूसरी तरफ से कोई आदमी उस दरवाजे को ठोकर दे रहा है या खोलना चाहता है। कुमार को इन्द्रजीतसिंह का खयाल हुआ और सोचने लगे कि ताज्जुब नहीं कि किसी राह से घूमते-फिरते भाई साहब यहाँ तक आ गए हों। यह खयाल उनके दिल में बैठ गया और उन्होंने तिलिस्मी खंजर से उस दरवाजे की जंजीर काट डाली। दरवाजा खुल गया और एक औरत कमरे के अन्दर आती हुई दिखाई दी जिसके हाथ में एक लालटेन थी और उसमें तीन मोम- बत्तियां जल रही थीं । यह नौजवान और हसीन औरत इस लायक थी कि अपनी सुघराई, खूबसुरती, नजाकत, सादगी और बाँकपन की बदौलत जिसका दिल चाहे मुट्ठी में कर ले । यद्यपि उसकी उम्र सत्रह-अट्ठारह वर्ष से कम न होगी मगर बुद्धिमानों और विद्वानों की बारीक निगाह जांच कर कह सकती थी कि इसने अभी तक मदनमहीप की पंचरंगी