पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
89
 

कि जहाँ तक हो सके, इस लड़ाई का फैसला जल्द ही कर देना चाहिए। ताज्जुब नहीं कि अपने साथियों को गिरते देखकर दुश्मनों का जोश बढ़ जाय, मगर उधर तो मामला ही दूसरा हो गया । अपने साथियों को बिना जख्म खाये गिरते और बेहोश होते देख दुश्मनों को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और उन्होंने सोचा कि भूतनाथ केवल ऐयार, बहादुर और लड़ाका ही नहीं है बल्कि वह किसी देवता का प्रबल इष्ट भी रखता है जिससे ऐसा हो रहा है । इस खयाल के साथ ही उन लोगों ने भागने का इरादा किया मगर ताज्जुब की बात थी कि वह रास्ता, जिधर से वे लोग आये थे, एकदम बन्द हो गया था। इस सबब से पीठ दिखाकर भागने वालों की जान पर भी आफत आई। इधर तो शेरअली खाँ की तलवार ने कई सिपाहियों का फैसला किया और उधर भूतनाथ ने तिलिस्मी खंजर का कब्जा दबाया जिससे बिजली की तरह चमक पैदा हुई और भागने वालों की आँखें एकदम बन्द हो गईं। फिर क्या था, भूतनाथ ने थोड़ी ही देर में तिलिस्मी खंजर की बदौलत बाकी बचे हुओं को भी बेहोश कर दिया और उस समय गिनती करने पर मालूम हुआ कि दुश्मन के सिर्फ पैंतालीस आदमी थे, कल्याणसिंह ने यह बात झूठ कही थी कि मेर साथ सौ सिपाही इस मकान में मौजूद हैं या आना ही चाहते हैं।

इतनी बड़ी लड़ाई और कोलाहल का चुपचाप निपटारा होना असम्भव था। शोरगुल, मारकाट और धरो-पकड़ो की आवाज ने मकान के बाहर तक खबर पहुँचा दी। पहरेवाले सिपाहियों में से एक सिपाही ऊपर चढ़ आया और यहाँ का हाल देख घबराकर नीचे उतर गया और अपने साथियों को खबर की। उसी समय यह बात चारों तरफ फैल गई और थोड़ी ही देर में राजा वीरेन्द्रसिंह के बहुत से सिपाही शेरअलीखाँ के कमरे में आ मौजूद हुए। उस समय लड़ाई खत्म हो चुकी थी और शेरअलीखां तथा भूतनाथ, जिसने पुनः अपने चेहरे पर नकाब चढ़ा ली थी, बेहोश, जख्मी और मरे हुए दुश्मनों को खुशी की निगाहों से देख रहे थे । शेरअलीखाँ ने राजा वीरेन्द्रसिंह आदमियों को देख कर कहा, "तहखाने की एक गुप्त राह से राजा वीरेन्द्रसिंह का दुश्मन कल्याणसिंह इतने आदमियों को लेकर बुरी नीयत से यहाँ आया था मगर (भूतनाथ की तरफ इशारा करके) इस बहादुर की मदद से मेरी जान बच गई और राजा वीरेन्द्रसिंह का भी कुछ नुकसान न हुआ । अब तुम लोग जहाँ तक जल्द हो सके, जिनमें जान है, उन्हें कैदखाने भिजवाने का और मुर्दो के जलवा देने का बन्दोबस्त करो और इस कमरे को भी साफ करा दो।"

इसके बाद उस कोठरी में जिसमें से कल्याणसिंह और उसके साथी लोग निकले थे, ताला बन्द करके शेरअलीखाँ भूतनाथ का हाथ पकड़े हुए कमरे के बाहर सहन में निकल आया और एक किनारे खड़ा होकर बातचीत करने लगा।

शेरअली--इस समय आपके आ जाने से केवल मेरी जान ही नहीं बची बल्कि राजा वीरेन्द्रसिंह का भी बहुतकुछ फायदा हुआ, हाँ, यह तो कहिए आप यहाँ कैसे आ पहुंचे ? किसी ने आपको रोका नहीं?

भूतनाथ--मुझे कोई भी नहीं रोक सकता। तेजसिंह ने मुझे एक ऐसी चीज दे रक्खी है जिसकी बदौलत मैं राजा वीरेन्द्रसिंह की हुकूमत के अन्दर महल छोड़ कर जहाँ