शेरअली—(खुश होकर) ठीक है, बेशक ऐसा ही होगा, तो अब विलम्ब करना उचित नहीं है, चलिए और जल्दी चलिए।
भूतनाथ--चलिए, मैं तैयार हूँ।
इतना कहकर भूतनाथ और शेरअलीखां ने राजा वीरेन्द्रसिंह के आदमियों की लाशों को उठवाने और जिन्दों को कैद करने के विषय में पुनः समझा-बुझा कर तथा और भी कुछ कह-सुनकर किले के बाहर का रास्ता लिया और बहुत जल्द उस ठिकाने जा पहुंचे जहां के लिए इरादा कर चुके थे।
6
कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह फिर उस बड़ी तस्वीर के पास आये जिसके नीचे महाराज सूर्यकान्त का नाम लिखा हुआ था । दोनों कुमार उस तस्वीर पर फिर से गौर करने और उस लिखावट को पढ़ने लगे जिसे पहले पढ़ चुके थे। हम ऊपर लिख आए हैं कि इस तस्वीर में कुछ लेख ऐसा भी था जो बहुत बारीक हर्मों में लिखा होने के कारण कुमार से पढ़ा नहीं गया । अब दोनों कुमार उसी को पढ़ने के लिए उद्योग करने लगे क्योंकि उसका पढ़ना उन दोनों ने बहुत ही आवश्यक समझा।
इस कमरे में जितनी तस्वीरें थीं वे सब दीवार में बहुत ऊँचे पर न थीं बल्कि इतनी नीचे थीं कि देखने वाला उनके मुकाबले में खड़ा हो सकता था । यही सबब था कि महाराज सूर्यकान्त की तस्वीर में जो कुछ लिखा था उसे दोनों कुमारों ने बखूबी पढ़ लिया था मगर कुछ लेख वास्तव में बहुत ही बारीक अक्षरों में लिखा हुआ था, इसी से ये दोनों भाई उसे पढ़ न सके । दोनों भाइयों ने तस्वीर की बनावट और उसके चौखटे (फ्रेम) पर अच्छी तरह ध्यान दिया तो चारों कोनों में छोटे-छोटे चार गोल शीशे जड़े हुए दिखाई पड़े जिनमें तीन शीशे तो पतले और एक ही रंग-ढंग के थे, मगर चौथा शीशा मोटा दलदार और बहुत साफ था। इन्द्रजीतसिंह ने उस मोटे शीशे पर उँगली रक्खी तो वह हिलता हुआ मालूम पड़ा और जब कुमार ने दूसरा हाथ उसके नीचे रख कर उँगली से दबाया तो चौखटे से अलग होकर हाथ में आ रहा । इस समय आनन्दसिंह तिलिस्मी खंजर हाथ में लिए हुए रोशनी कर रहे थे । उन्होंने इन्द्रजीतसिंह से कहा, "मेरा दिल गवाही देता है कि यह शीशा उन अक्षरों के पढ़ने में अवश्य कुछ सहायता देगा जो बहुत बारीक होने के सबब से पढ़े नहीं जाते।"
इन्द्रजीतसिंह--मेरा भी यही खयाल है और इसी सबब से मैंने इसे निकाला भी है।
आनन्दसिंह--इसीलिए यह मजबूती के साथ जड़ा हुआ भी नहीं था।
इन्द्रजीतसिंह--देखो, अब सब मालूम ही हुआ जाता है।
इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह ने उस शीशे को उन बारीक अक्षरों के ऊपर रक्खा