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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/९६

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लिए इसमें दो मुट्ठे बने हुए हैं।

इन्द्रजीतसिंह--बेशक ऐसा ही है, अच्छा हम भी दूसरे मुठे को खींचते हैं। दोनों आदमियों का जोर एक साथ ही लगना चाहिए।

दोनों भाइयों ने आमने-सामने खड़े होकर दोनों मुट्ठों को खूब मजबूती से पकड़ा और बाएँ-दाहिने दोनों तरफ को उमेठा, मगर वह बिलकुल न घूमा । इसके बाद दोनों ने उन्हें अपनी तरफ खींचा और कुछ खिंचते देखकर दोनों भाइयों ने समझा कि हमें इसमें अपनी पूरी ताकत खर्च करनी पड़ेगी। आखिर ऐसा ही हुआ, अर्थात् दोनों भाइयों के खूब जोर करने पर वे दोनों मुठे खिच कर बाहर निकल आये और इसके साथ ही उस चबूतरे की एक तरफ की दीवार (जिधर मुट्ठा नहीं था) पल्ले की तरह खुल गई। राजा गोपालसिंह ने झुक कर उसके अन्दर तिलिस्मी खंजर की रोशनी दिखाई और तीनों भाई बड़े गौर से अन्दर देखने लगे । एक छोटी सी चौकी नजर आई जिस पर छोटी सी तांबे की तख्ती के ऊपर एक चाबी रक्खी हुई थी। इन्द्रजीतसिंह ने अन्दर की तरफ हाथ बढ़ा कर चौकी खींचनी चाही मगर वह अपनी जगह से न हिली, तब उन्होंने ताँबे की तख्ती और ताली उठा ली और पीछे की तरफ हटकर उस खुले हुए पल्ले को बन्द करना चाहा मगर वह भी बन्द न हुआ, लाचार उसे उसी तरह छोड़ दिया। तांबे की तख्ती पर दोनों भाइयों ने निगाह डाली तो मालूम हुआ कि उस पर बाजे में ताली लगाने की तरकीव लिखी हुई है और ताली वही है जो उस तख्ती के साथ थी।

गोपालसिंह–-(इन्द्रजीतसिंह से) ताली तो अब आपको मिल ही गई, मैं उचित समझता हूँ कि थोड़ी देर के लिए आप लोग यहां से चल कर बाहर की हवा खाएँ और सुस्ताने के बाद फिर जो कुछ मुनासिब समझें करें।

इन्द्रजीतसिंह--हाँ, मेरी भी यही इच्छा है, इस बन्द जगह में बहुत देर तक रहने से तबीयत घबरा गई है और सिर में चक्कर आ रहा है।

आनन्दसिंह--मेरी भी यही हालत है और प्यास बड़े जोर की मालूम होती है।

गोपालसिंह--बस तो इस समय यहाँ से चले चलना ही बेहतर है। हम आप लोगों को एक बाग में ले चलते हैं जहाँ हर तरह का आराम मिलेगा और खाने-पीने का भी सुभीता होगा!

इन्द्रजीतसिंह--बहुत अच्छा । चलिये, किस रास्ते से चलना होगा?

गोपालसिंह--इसी राह से जिससे आप आये हैं।

इन्द्रजीतसिंह--तब तो वह कमरा भी आनन्द के देखने में आ जायगा जिसे मैं स्वयं इन्हें दिखाना चाहता था, अच्छा चलिये।

राजा गोपाल सिंह अपने दोनों भाइयों को साथ लिए हुए वहाँ से रवाना हुए और उस कोठरी में गये जिसमें से आनन्दसिंह ने अपने भाई इन्द्रजीतसिंह को आते देखा था। उस जगह इन्द्रजीतसिंह ने राजा गोपालसिंह से कहा, "क्या आप इसी राह से यहाँ आते थे ? मुझे तो इस दरवाजे की जंजीर खंजर से काटनी पड़ी थी !"

गोपालसिंह--ठीक है, मगर हम इस ताले को हाथ लगाकर एक मामूली इशारे से खोल लिया करते थे।

च० स०-4-6