प्रकार की आवाज पैदा हुई जैसे किसी धातु की पोली चीज को ठोंकने से निकलती है । उस समय आनन्दसिंह का शक दूर हुआ और वे बोले, "निःसन्देह यह निर्जीव है, मगर वह औरत भी ठीक वैसी ही थी, डील-डौल, रंग-ढंग, कपड़ा-लत्ता किसी भी बात में फर्क नहीं है ! ईश्वर जाने क्या मामला है !"
गोपालसिंह--ईश्वर जाने, क्या भेद है ! परन्तु जब से तुमने यह बात कही है हमारे दिल को एक खुटका-सा लग गया है, जब तक उसका ठीक-ठीक पता न लगेगा, जी को चैन न पड़ेगा। खैर, इस समय तो यहाँ से चलना चाहिए।
राजा गोपालसिंह उस लटकते हुए आदमी के पास गए और उसका एक पैर पकड़ कर नीचे की तरफ दो-तीन बार झटका दिया, तब वहाँ से हट कर इन्द्रजीतसिंह के पास चले आये । झटका देने के साथ ही वह आदमी जोर-जोर से झोंके खाने लगा और कमरे में किसी तरह की भयानक आवाज आने लगी । मगर यह नहीं मालूम होता था कि आवाज किधर से आ रही है, हर तरफ वह भयानक आवाज गूंज रही थी । यह हालत चौथाई घड़ी तक रही, इसके बाद जोर की आवाज हुई और सामने की तरफ एक छोटा-सा दरवाजा खुला हुआ दिखाई दिया। उस समय कमरे में किसी तरह की आवाज सुनाई न देती थी, हर तरह से सन्नाटा हो गया था ।
दोनों भाइयों को साथ लिए राजा गोपाल सिंह दरवाजे के अन्दर गए जो अभी खुला था । उसके अन्दर ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियां बनी हुई थीं जिस राह से तीनों भाई ऊपर चढ़ गए और अपने को एक छोटे-से नजरबाग में पाया । यह बाग यद्यपि छोटा था मगर बहुत ही खूबसूरत और सूफियाने किते का बना हुआ था। संगमर्मर की बारीक नालियों में नहर का जल चकाबू के नक्शे की तरह घूम-फिर कर वाग की खूबसूरती को बढ़ा रहा था । खुशबूदार फूलों की महक हवा के हलके-हलके झपेटों के साथ आ रही थी। सूर्य अस्त हो चुका था, रात के समय खिलने वाली कलियों चन्द्रदेव की आशा लग रही थी। कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह बहुत देर तक अंधेरे में रहने तथा भूख-प्यास के कारण बहुत परेशान हो रहे थे, नहर के किनारे साफ पत्थर पर बैठ गए, कपड़े उतार दिये और मोती सरीखे साफ जल से हाथ-मुंह धोने के बाद दो-तीन चुल्लू जल पीकर हरारत मिटाई।
गोपालसिंह--अब आप लोग इस बाग में बेफिक्री के साथ अपना काम करें। मैदान जायें और स्नान-संध्या-पूजा से छुट्टी पाकर बाग की सैर करें, तब तक मैं खास बाग में जाकर कुछ खाने का सामान और तिलिस्मी किताब जो मेरे पास है ले आता हूँ। इस बाग में मेवे के पेड़ भी बहुतायत से हैं, यदि इच्छा हो तो आप उनके फल खाने के काम में ला सकते हैं।
इन्द्रजीतसिंह--बहुत अच्छी बात है, आप जाइये, मगर जहाँ तक हो सके, जल्दी ही आइएगा।
आनन्दसिंह--क्या हम लोग आपके साथ खास बाग में नहीं चल सकते?
गोपालसिंह--क्यों नहीं चल सकते? मगर मैं इस समय आप लोगों को तिलिस्म के बाहर ले जाना पसन्द नहीं कर सकता और तिलिस्मी किताब में भी ऐसा करने की