मनाही है।
इन्द्रजीतसिंह--खैर, कोई चिन्ता नहीं, आप जाइए और जल्द लौट कर आइए। जब वह तिलिस्मी किताब जो आपके पास है हम लोग पढ़ लेंगे और आप भी इस 'रिक्तगंथ' को जो मेरे पास है पढ़ लेंगे तब जैसी राय होगी किया जायगा।
गोपालसिंह--ठीक है, अच्छा तो अब मैं जाता हूँ।
इतना कहकर राजा गोपालसिंह एक तरफ चले गये और कुंअर इन्द्रजीतसिंह तथा आनन्दसिंह जरूरी कामों से छुट्टी पाने की फिक्र में लगे।
7
राह पहर भर से ज्यादा जा चुकी है । चन्द्रदेव उदय हो चुके हैं मगर अभी इतने ऊंचे नहीं उठे हैं कि बाग के पूरे हिस्से पर चांदनी फैली हुई दिखाई देती, हाँ, बाग के उस हिस्से पर चाँदनी का फर्श जरूर बिछ चुका था जिधर कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह एक चट्टान पर बैठे हुए बातें कर रहे थे । ये दोनों भाई अपने जरूरी कामों से छुट्टी पा चुके थे और संध्या-वंदन करके दो-चार फलों से आत्मा को सन्तोष देकर आराम से बैठे बातें करते हुए राजा गोपालसिंह के आने का इन्तजार कर रहे थे। यकायक बाग के उस कोने में, जिधर चाँदनी न होने तथा पेड़ों के झुरमुट के कारण अंधेरा था, दीये की चमक दिखाई पड़ी। दोनों भाई चौकन्ने होकर उस तरफ देखने लगे और दोनों को गुमान हुआ कि राजा गोपालसिंह आते होंगे, मगर उनका शक थोड़ी ही देर बाद जाता रहा जब एक औरत को हाथ में लालटेन लिए अपनी तरफ आते देखा।
इन्द्रजीतसिंह--यह औरत इस बाग में क्योंकर आ पहुँची?
आनन्दसिंह--ताज्जुब की बात है । मगर मैं समझता हूँ कि इसे हम दोनों भाइयों के यहाँ होने की खबर नहीं है, अगर होती तो इस तरह बेफिक्री के साथ कदम बढ़ाती हुई न आती।
इन्द्रजीतसिंह--मैं भी यही समझता हूँ, अच्छा हम दोनों को छिप कर देखना चाहिए कि यह कहाँ जाती और क्या करती है।
आनन्दसिंह--मेरी भी यही राय है।
दोनों भाई वहाँ से उठे और धीरे-धीरे चलकर एक पेड़ की आड़ में छिप रहे, जिसे चारों तरफ से लताओं ने अच्छी तरह घेर रक्खा था और जहाँ से उन दोनों की निगाह बाग के हर एक हिस्से और कोने में भी बखूबी पहुँच सकती थी। जब वह औरत घूमती हुई उस पेड़ के पास से होकर निकली, तब आनन्दसिंह ने धीरे से कहा,"यह वही औरत है।"
इन्द्रजीतसिंह--कौन ?
आनन्दसिंह--जिसे तिलिस्म के अन्दर बाजे वाले कमरे में मैंने देखा था और