मुझे माँ-बाप की आज्ञा से भी बढ़ कर माननी पड़ती है।
भैरोंसिंह––(इन्द्रानी से) इस तिलिस्म के अन्दर कल-परसों में किसी और का ब्याह भी होने वाला है?
इन्द्रानी––नहीं।
भैरोंसिंह––मगर हमने सुना है।
इन्द्रानी––कदापि नहीं, अगर ऐसा होता तो हम लोगों को पहले खबर होती।
इन्द्रानी का जवाब सुनकर भैरोंसिंह ने मुस्कराते हुए कुँअर इन्द्रजीतसिंह औ आनन्दसिंह की तरफ देखा और दोनों कुमारों ने भी उसका मतलब समझ कर सिर नीचा कर लिया।
इन्द्रजीतसिंह––(इन्द्रानी से) क्या तुम लोगों में पर्दे का कुछ खयाल नहीं रहता?
इन्द्रानी––पर्दे का खयाल बहुत ज्यादा रहता है। मगर उस आदमी से पर्दे का बर्ताव करना पाप समझा जाता है, जिसको ईश्वर ने तिलिस्म तोड़ने की शक्ति दी है, तिलिस्म तोड़ने वाले को हम ईश्वर समझें, यही उचित है।
आनन्दसिंह––तो तुम राजा गोपालसिंह के पास जा सकती हो या हमारी चिट्ठी उनके पास पहुँचा सकती हो?
इन्द्रानी––मैं स्वयं राजा गोपालसिंह के पास जा सकती हूँ और अपना आदमी भी भेज सकती हूँ। मगर आजकल ऐसा करने का मौका नहीं है, क्योंकि आजकल मायारानी वगैरह खास बाग में आई हुई हैं, और उनसे तथा राजा गोपालसिंह से बदाबदी हो रही है, शायद यह बात आपको भी मालूम होगी।
इन्द्रजीतसिंह––हाँ, मालूम है।
इन्द्रानी––ऐसी अवस्था में हम लोगों का या हमारे आदमियों का वहाँ जाना अनुचित ही नहीं बल्कि दुःखदायी भी हो सकता है!
इन्द्रजीतसिंह––हाँ, सो तो जरूर है।
इन्द्रानी––मगर मैं आपका मतलब समझ गई, आप शायद उसके विषय में राजा गोपालसिंह को लिखना चाहते हैं जिसके हिस्से में किशोरी-कामिनी वगैरह पड़ी हुई हैं, मगर ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है। दो रोज सब्र कीजिए, तब तक स्वयं राजा गोपालसिंह ही यहाँ आकर आपसे मिलेंगे।
इन्द्रजीतसिंह––अच्छा, यह बताओ कि हमारी चिट्ठी किशोरी या कमलिनी के पास पहुँचवा सकती हो?
इन्द्रानी––जी हाँ, बल्कि उसका जवाब भी मँगवा सकती हूँ, मगर ताज्जुब की बात है कि कमलिनी ने आपके पास कोई पत्र क्यों नहीं भेजा? इसमें कोई सन्देह नहीं कि उन्हें आप लोगों का यहाँ आना मालूम है।
इन्द्रजीतसिंह––शायद कोई सबब होगा। अच्छा तो कमलिनी के नाम से एक चिट्ठी लिख दूँ?
इन्द्रानी––हाँ लिख दीजिये, मैं उसका जवाब मँगा दूँगी। कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने भैरोंसिंह की तरफ देखा। भैरोंसिंह ने अपने बटुए में से