पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/१३१

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दुष्ट लोग यदि किसी कारण मनुष्य को चींटी समझने लायक हो भी जाये तो भी कोई बात नहीं। मगर ईश्वर की तरफ से वे किसी तरह निश्चिन्त नहीं हो सकते और अपने बुरे कामों का फल अवश्य पाते हैं। क्या इन्हीं राजा वीरेन्द्रसिंह और मेरे किस्से से तुम यह नसीहत नहीं ले सकते? क्या तुम मायारानी, माधवी, अग्निदत्त और शिवदत्त वगैरह से भी अपने को बढ़कर समझते हो और नहीं जानते कि उन लोगों का अन्त किस तरह हुआ और हो रहा है? फिर किस भरोसे पर तुम अपने को बुरी राह चलाना चाहते हो? निःसंदेह तुम्हारा बाप बुद्धिमान है जो एक नामी और अद्भुत शक्ति रखने वाला अमीर ऐयार होने और हर तरह की बेइज्जती सहने पर भी राजा वीरेन्द्रसिंह का कृपा-पात्र बनने का ध्यान अपने दिल से दूर नहीं करता और तुम उसी भूतनाथ के लड़के हो जो अपने दिल को भी काबू में नहीं रख सकते!

इस तरह की बहुत-सी नसीहत-भरी बातें राजा गोपालसिंह ने इस ढंग से नानक को कहीं कि उसके दिल पर असर कर गईं। वह राजा गोपालसिंह के पैरों पर गिर पड़ा और जब उन्होंने उसे दिलासा देकर उठाया तो हाथ जोड़ कर अपनी डबडबाई हुई आँखें नीचे किए हुए बोला, "मेरा अपराध क्षमा कीजिए! यद्यपि मैं क्षमा माँगने योग्य नहीं हूँ। परन्तु आपकी उदारता मुझे क्षमा देने योग्य है। अब मुझे अपनी ताबेदारी में लीजिए और हर तरह से आजमा कर देखिए कि आपकी नसीहत का असर मुझ पर कैसा पड़ा और अब मैं किस तरह आपकी खिदमत करता हूँ।"

इसके जवाब में गोपालसिंह ने कहा, "अच्छा, हम तुम्हारा कसूर माफ करके तुम्हारी दर्खास्त कबूल करते हैं। तुम मेरे साथ आओ और जो कुछ मैं कहूँ, सो करो।"


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कमलिनी को देख कर दोनों कुमार शरमाए और मन में तरह-तरह की बातें सोचने लगे। देखते-देखते कमलिनी उनके पास आ गई और प्रणाम करके बोली, "आप यहाँ जमीन पर क्यों बैठे हैं? उस कमरे में चलकर बैठिए, जहाँ फर्श बिछा है और सब तरह का आराम है।"

इन्द्रजीतसिंह––मगर वहाँ अँधकार तो जरूर होगा।

कमलिनी––जी नहीं, वहाँ बखूबी रोशनी हो रही होगी, (मुस्करा कर) क्योंकि यहाँ की रानी के मर जाने से यह बाग एक सुघड़ रानी के अधिकार में आ गया है और उसने आपकी खातिर में रोशनी जरूर कर रखी होगी।

इन्द्रजीतसिंह––(कुछ शर्मिन्दगी के साथ) बस, रहने दीजिए, मैं यहां की रानियों का मेहमान नहीं बनता। जो कुछ बनना था, सो बन चुका। अब तो तुम्हारी दिल्लगी का निशाना बनूँगा।

कमलिनी––(हाथ जोड़ कर) मेरी क्या मजाल जो आपसे दिल्लगी करूँ, अच्छा