सुना कि मनोरमा आ गई है। कमरे के बाहर निकलकर सहन में गई जहाँ मनोरमा एक कुर्सी पर बैठी नानू से बात कर रही थी। दो लौंडियाँ उसके पीछे खड़ी थीं और उसक बगल में दो-तीन खाली कुर्सियाँ भी पड़ी हुई थीं। मनोरमा ने अपने पास एक कुर्सी खींच कर मुझे बड़े प्यार से उस पर बैठने के लिए कहा और जब मैं बैठ गई तो बातें भी होने लगीं!
मनोरमा––(मुझसे) बेटी, तू जानती है कि यह (नानू की तरफ बताकर) आदमी हमारा कितना बड़ा खैरखाह है!
मैं––माँ, शायद यह तुम्हारा खैरखाह होगा, मगर मेरा तो पूरा दुश्मन है।
मनोरमा––(चौंककर) क्यों-क्यों, सो क्यों?
मैं––सैकड़ों मुसीबतें झेल कर तो मैं तुम्हारे पास पहुँची और तुमने भी मुझे अपनी लड़की बनाकर मेरे साथ जो सलूक किया, वह प्रायः यहाँ के रहने वाले सभी कोई जानते होंगे, मगर यह नानू नहीं चाहता कि मैं अब भी किसी तरह सुख की नींद सो सकूँ। कल शाम को जब मैं बाग में टहल रही थी तो यह मेरे पास आया और एक पुर्जा मेरे हाथ में देकर बोला कि 'इसे पढ़ और होशियार हो जा, मगर खबरदार, मेरा नाम न लेना।'
नानू––(मेरी बात काटकर क्रोध से) क्यों मुझ पर तूफान बाँध रही हो! क्या यह बात मैंने तुमसे कही थी:
मैं––(रंग बदलकर) बेशक, तूने पुर्जा देकर यह बात कही थी और मुझे भाग जाने के लिए भी ताकीद की! आँखें क्यों दिखाता है! जो बातें तूने···
मनोरमा––(बात काटकर) अच्छा-अच्छा, तू क्रोध मत कर, जो कुछ होगा, मैं समझ लूँगी। तू जो कहती थी उसे पूरा कर। (नानू से) बस, तुम चुपचाप बैठे रहो, जब यह अपनी बात पूरी कर ले तब जो कुछ कहना हो कहना।
मैं––मैंने उस पुर्जे को खोलकर पढ़ा तो उसमें यह लिखा हुआ पाया––"जिसे तू अपनी आँ समझती है, वह मनोरमा है। तुझे अपना काम निकालने के लिए यहाँ ले आई है, काम निकल जाने पर तुझे जान से मार डालेगी, अब जहाँ तक जल्द हो सके, निकल भागने की फिक्र कर।" इत्यादि और भी कई बातें उसमें लिखी हुई थीं, जिन्हें पढ़कर मैं चौंकी और बात बनाने के तौर तर नानू से बोली, "आपने बड़ी मेहरबानी की जो मुझे होशियार कर दिया, अब भागने में भी आप ही मेरी मदद करेंगे तो जान बचेगी।" इसके जवाब में इसने खुश होकर कहा कि तुम्हें मुझसे ज्यादा बातचीत न करनी चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि लोगों को मुझ पर शक हो जाय। मैं भागने में भी तुम्हारी मदद करूँगा, मगर इस बात को बहुत छिपाये रखना क्योंकि यहाँ बरदेबू नाम का आदमी तुम्हारा दुश्मन है।" इत्यादि––
नानू––(बात काट कर) हाँ, बेशक यह बात मैंने तुमसे जरूर कही थी कि···
मैं धीरे-धीरे तुम सभी बात कबूल करोगे, मगर ताज्जुब यह है कि मना करने पर भी तुम टोके बिना नहीं रहते।
मनोरमा––(क्रोध से) क्या तुम चुप न रहोगे?
च॰ स॰-5-9