पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/१५८

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न कीजिए।

इन्द्रजीतसिंह––(उठकर) अच्छा, तो फिर मैं प्रणाम करता हूँ और भैरोंसिंह को भी आपके ही सुपुर्द किये जाता हूँ। (लक्ष्मीदेवी से) आप किसी तरह की चिन्ता न करें, ये (गोपालसिंह) वास्तव में हमारे भाई साहब ही हैं, अतः अब चुनार में पुनः मुलाकात की उम्मीद करता हुआ मैं आप लोगों से बिदा होता हूँ।

इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह ने मुस्कुराते हुए सभी की तरफ देखा और आनन्दसिंह ने भी बड़े भाई का अनुसरण किया। राजा गोपालसिंह दोनों कुमारों को लिए कमरे के बाहर चले गये और कुछ देर तक बातचीत करने तथा समझा कर बिदा करने के बाद पुनः कमरे में चले आये।


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यद्यपि चुनारगढ़ वाले तिलिस्मी खँडहर की अवस्था ही जीतसिंह ने बदल दी और अब वह आला दर्जे की इमारत बन गई है मगर उसके चारों तरफ दूर-दूर तक जो जंगलों की शोभा थी उसमें किसी तरह की कमी उन्होंने न होने दी।

सुबह का सुहावना समय है और राजा सुरेन्द्रसिंह, वीरेन्द्रसिंह, जीतसिंह तथा तेजसिंह वगैरह धुर ऊपर वाले कमरे में बैठे जंगल की शोभा देखने के साथ-ही-साथ आपस में धीरे-धीरे बात भी करते जाते हैं। जंगलीं पेड़ों के पत्तों से छनी और फूलों की महक से सुगन्धित हुई दक्षिणी हवा के झपेटे आ रहे हैं और रात-भर की चुप बैठी हुई तरह-तरह की चिड़ियाएँ सवेरा होने की खुशी में अपनी सुरीली आवाजों से लोगों का जी लुभा रही हैं। स्याह-तीतर अपनी मस्त और बँधी हुई आवाज़ से हिन्दू-मुसलमान कुँजड़ों और कस्साबों में झगड़ा पैदा कर रहे हैं। मुसलमान कहते हैं कि तीतर साफ आवाज में यही कह रहा है कि 'सुब्हान तेरी कुदरत' मगर हिन्दू इस बात को स्वीकार नहीं करते और कहते हैं कि यह स्याह तीतर 'राम लक्ष्मण दशरथ' कहकर अपनी भक्ति का परिचय दे रहा है। कुँजड़े इसे भी नहीं मानते और उसकी बोली का मतलब 'मूली, प्याज अदरक' समझकर अपना दिल खुश कर रहे हैं, परन्तु कस्साबों को सिवाय इसके और कुछ नहीं सूझता कि यह तीतर 'कर जबह और ढक रख' का उपदेश दे रहा है।

इसी समय देवीसिंह भी वहाँ आ पहुँचे और भूतनाथ और बलभद्रसिंह के हाजिर होने की इत्तिला दी। इच्छानुसार दोनों ने सामने आकर सलाम किया और फर्श पर बैठने के बाद इशारा पाकर भूतनाथ ने तेजसिंह से कहा––

भूतनाथ––(बलभद्रसिंह की तरफ इशारा करके) इनका हाल सुनने के लिए जी बेचैन हो रहा है, मैं इनसे कई दफे चुका हूँ मगर ये कुछ कहते नहीं।

तेजसिंह––(बलभद्रसिंह से) अब तो आपकी तबीयत ठिकाने हो गई होगी?

बलभद्रसिंह––जी हाँ, अब मैं बहुत अच्छा हूँ और अपना हाल कहने के लिए