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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/१९०

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चाहिए। मैं समझता हूँ कि तुम्हारे पास तिलिस्मी खंजर मौजूद है।

भूतनाथ––जी हाँ, (खंजर की तरफ इशारा करके) यह तैयार है।

देवीसिंह––(अपने खंजर की तरफ बता के) मेरे पास भी है।

भूतनाथ––आपको कहाँ से मिला?

देवीसिंह––तेजसिंह ने दिया था। यह वही खंजर है जो मनोरमा के पास था, कम्बख्त ने इसके जोड़ की अँगूठी अपनी जाँघ के अन्दर छिपा रक्खी थी जिसका पता बड़ी मुश्किल से लगा और तब से इस ढंग को मैंने भी पसन्द किया।

भूतनाथ––अच्छा, तो अब आपकी क्या राय होती है? यहाँ से निकल भागने की कोशिश की जाय या यहाँ रह कर कुछ भेद जानने की?

देवीसिंह––इन दोनों खंजरों की बदौलत शायद हम यहाँ से निकल जा सकें, मगर ऐसा करना न चाहिए। अब जब गिरफ्तार होने की शर्मिन्दगी उठा ही चुके तो बिना कुछ किये चले जाना उचित नहीं है, जिस पर यहाँ आकर मैंने अपनी स्त्री को और तुमने अपनी स्त्री को देख लिया, अब क्या बिना उन दोनों का असल भेद मालूम किये यहाँ चलने की इच्छा हो सकती है!

भूतनाथ––बेशक ऐसा ही है...

इतना कहते-कहते भूतनाथ यकायक रुक गया, क्योंकि उसके कान में किसी के जोर से हँसने की आवाज आई और यह आवाज कुछ पहचानी हुई सी जान पड़ी। देवीसिंह ने भी इस आवाज पर गौर किया और उन्हें भी इस बात का शक हुआ कि इस आवाज को मैं कई दफा सुन चुका हूँ। मगर इस बात का कोई निश्चय वे दोनों नहीं कर सके कि यह आवाज किसकी है।

देवीसिंह और भूतनाथ दोनों ही आदमी इस बात को गौर से देखने और जाँचने लगे कि यह आवाज किधर से आई या हम उसे किसी तरह देख भी सकते हैं या नहीं जिसकी यह आवाज है। यकायक उन दोनों ने दीवार में ऊपर की तरफ दो सूराख देखे जिनमें आदमी का सिर बखूबी जा सकता था। ये सूराख छत से हाथ भर नीचे हट कर बने हुए थे और हवा आने-जाने के लिए बनाये गये थे। दोनों को खयाल हुआ कि इसी में से आवाज आती है और उसी समय पुन. हँसने की आवाज आने से इस बात का निश्चय हो गया।

फौरन ही दोनों के मन में यह बात पैदा हुई कि किसी तरह उस सूराख तक पहुँच कर देखना चाहिए कि कुछ दिखाई देता है या नहीं, मगर इस ढंग से कि उस दूसरी तरफ वालों को हमारी इस ढिठाई का पता न लगे।

हम लिख चुके हैं कि इस कमरे में दो चारपाइयाँ बिछी हुई थीं। देवीसिंह ने उन्हीं दोनों चारपाइयों को उस सूराख तक पहुँचने का जरिया बनाया, अर्थात् बिछावन हटा देने के बाद एक चारपाई दीवार के सहारे खड़ी करके दूसरी चारपाई उसके ऊपर खड़ी की और कमन्द से दोनों के पाये अच्छी तरह मजबूती के साथ बाँधकर एक प्रकार की सीढ़ी तैयार की। इसके बाद देवीसिंह ने भूतनाथ के कन्धे पर चढ़कर कन्दील की रोशनी बुझा दी और तब उस चारपाई की अनूठी सीढ़ी पर चढ़ने का विचार किया।