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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/२८

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इसके बाद स्वयं एक रथ पर सवार हो और इन्द्रदेव को भी उसी पर अपने साथ बैठा लिया, बाकी तीन रथ खाली ही रह गये। सवारी धीरे-धीरे जमानिया की तरफ रवाना हुई और फौजी सवार खूबसूरती के साथ राजा साहब को घेरे हुए धीरे-धीरे जैसा कि रथ जा रहा था जाने लगे। भैरोंसिंह अपना घोड़ा बढ़ाकर नकली रामदीन के पास चला गया जो उसी पंचकल्यान घोड़ी पर सवार था और उसके साथ-साथ जाने लगा। यह बात लीला को बहुत बुरी मालूम हुई क्योंकि वह राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों से बहुत डरती थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद वह बोली––

लीला––(भैरों से)आपने राजा साहब का साथ क्यों छोड़ दिया?

भैरोंसिंह––(हँसकर)तुम्हारा साथ करने के लिये, क्योंकि मैं अपने दोस्त रामदीन को अकेला नहीं छोड़ सकता।

लीला––और जब मुझे राजा साहब ने अकेले जमानिया भेजा था तब आप कहाँ डूब गये थे?

भैरोंसिंह––तब भी तुम्हारे साथ था मगर तुम्हारी नजरों में छिपा हुआ था।

लीला––(डरकर, मगर अपने को सम्हालकर) परसों तुम कहाँ थे? कल कहाँ थे और आज सवेरा होने के पहले तक कहाँ गायब थे? क्यों झूठी बातें बना रहे हो?

भैरोंसिंह––परसों भी कल भी और आज तक भी मैं तुम्हारे साथ ही था मगर तुम्हारी नजरों से छिपा हुआ था, हाँ, जब दो घण्टे रात बाकी थीं तब मैंने तुम्हारा साथ छोड़ दिया और राजा साहब से जा मिला। अब मैं फिर तुम्हारे साथ जा रहा हूँ क्योंकि राजा साहब का ऐसा ही हुक्म है। (हँसकर) क्योंकि राजा साहब ने सुना है कि तुम्हारा इरादा जमानिया पहुँचने के पहले ही भाग जाने का है।

लीला––(अपने उछलते कलेजे को रोककर) यह उनसे किसने कहा?

भैरोंसिंह––मैंने?

लीला––और तुम्हें किसने खबर दी?

भैरोंसिंह––तुम्हारे दिल ने।

लीला––मानो मेरे दिल के आप भेदिया ठहरे!

भैरोंसिंह––बेशक ऐसा ही है। अगर तुम्हें ऐयारी का ढंग पूरा-पूरा मालूम होता तब तुम्हारा दिल मजबूत होता मगर तुम्हारी ऐयारी अभी बिल्कुल कच्ची है। आह, एक बात तुमसे कहना तो मैं भूल ही गया, जिस रात मायारानी राजा वीरेन्द्रसिंह के लश्कर से भाग गई थी उसी रोज सवेरा होने के पहले ही खबर राजा गोपालसिंह को मालूम हो गई थी।

लीला––(काँपती हुई और लड़खड़ाती आवाज में) यह तो मुझे मालूम है, मगर तुम्हारे इस कहने का मतलब क्या है सो समझ में नहीं आता।

भैरोंसिंह––मतलब यही है कि तुम अपनी सूरत साफ करो और मेरे साथ राजा साहब के पास चलो क्योंकि अब असली रामदीन के सामने तुम्हारा रामदीन बने रहना मुनासिब नहीं है

लीला––असली रामदीन अब कहाँ...