पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/४६

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से हुई!

आनन्दसिंह––निःसन्देह ऐसा ही है।

इन्द्रजीतसिंह––पहले सरयू को होश में की लाने फिक्र करो, शायद हमें इसकी जुबानी कुछ मालूम हो।

आनन्दसिंह––जो आज्ञा।

इतना कहकर आनन्दसिंह सरयू को होश में लाने का उद्योग करने लगे। थोड़ी देर में सरयू की बेहोशी जाती रही और इतने ही में सुबह की सफेदी ने भी अपनी सूरत दिखाई।

इन्द्रजीतसिंह––(सरयू से) तुम्हें किसने बेहोश किया?

सरयू––एक नकाबपोश ने आकर एक चादर जबर्दस्ती मेरे ऊपर डाल दी जिससे मैं बेहोश हो गई। मैं दूर से सब तमाशा देख रही थी। जब आप कमन्द के सहारे ऊपर चढ़ गये और उसके कुछ देर बाद छोटे कुमार भी आपको कई दफे पुकारने के बाद उसी कमन्द के सहारे ऊपर चढ़ गये, तब उन्हीं में से एक नकाबपोश ने उन सभी को सचेत किया जो (हाथ का इशारा करके) उस जगह बेहोश पड़े हुए थे या जो ऊपर से लटकाए गए थे। इसके बाद सब कोई मिल कर उस (हाथ से बता कर) दीवार की तरफ गए और कुछ देर तक आपस में बातें करते रहे। इसी बीच में छिपकर उनकी बातें सुनने की नीयत से मैं भी धीरे-धीरे अपने को छिपाती हुई उस तरफ बढ़ी मगर अफसोस वहाँ तक पहुँचने भी न पाई थी कि एक नकाबपोश मेरे सामने आ पहुँचा और उसने उसी ढंग से मुझे बेहोश कर दिया जैसा कि मैं अभी कह चुकी हूँ। शायद उसी बेहोशी की अवस्था में मैं इस जगह पहुँचाई गई।

सरयू की बातें सुन कर दोनों कुमार कुछ देर तक सोचते रहे। इसके बाद सरयू को साथ लिए उसी दीवार की तरफ गये जिधर उन लोगों का जाना सरयू ने बताया था जो कमन्द के सहारे इस बाग में उतरे या उतारे गये थे। जब वहाँ पहुँचे तो देखा कि दीवार की लम्बाई के बीचोंबीच में एक दरवाजे का निशान बना हुआ है और उसके पास ही में नीचे की जमीन कुछ खुदी हुई है।

आनन्दसिंह––(इन्द्रजीतसिंह से) देखिए यहाँ की जमीन उन लोगों ने खोदी और तिलिस्म के अन्दर जाने का दरवाजा निकाला है, क्योंकि दीवार में अब वह गुण तो रहा नहीं जो उन लोगों को ऐसा करने से रोकता।

इन्द्रजीतसिंह––बेशक यह वही दरवाजा है जिस राह से हम लोग तिलिस्म के दूसरे दर्जे में जाने वाले थे! मगर इससे तो यह जाना जाता है कि वे लोग तिलिस्म के अन्दर घुस गये?

आनन्दसिंह––जरूर ऐसा ही है और यह काम सिवाय गोपाल भाई के दूसरा कोई नहीं कर सकता। अस्तु अब मैं जरूर यह कहने की हिम्मत करूँगा कि वह कोई दूसरा नहीं था, जिसके कहे मुताबिक मैं आपको बुलाने के लिए मकान के ऊपर चला गया था।

इन्द्रजीतसिंह––तुम्हारी बात मान लेने की इच्छा तो होती है। मगर क्या तुम