रहना तब तक बहुत ही जरूरी है जब तक आप तिलिस्म तोड़ने का काम समाप्त न कर लें। मुझे बस मामूली तलवार दे दीजिए, मैं अपना काम उसी से चला लूँगा और वह दवा खिला कर मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं उस बुढ़िया के पास से अपना बटुआ निकालने का उद्योग करूँ।
दोनों कुमारों के पास तिलिस्मी खंजर के अतिरिक्त एक-एक तलवार भी थी। इन्द्रजीतसिंह ने अपनी तलवार भैरोंसिंह को दी और डिबिया में से निकाल कर थोड़ी-सी दवा भी खिलाने के बाद कहा, मैं तुमसे कह चुका हूँ कि जब हम दोनों भाई इस बाग पहुँचे तो चूहेदानी के पल्ले की तरह वह दरवाजा बन्द हो गया जिस राह से हम दोनों आये थे और उस दरवाजे पर लिखा हुआ था कि यह तिलिस्म टूटने लायक नहीं है।
भैरोंसिंह––हाँ, यह आप कह चुके हैं।
आनन्दसिंह––(इन्द्रजीतसिंह से) भैया, मुझे तो उस लिखावट पर विश्वास नहीं होता।
इन्द्रजीतसिंह––यही मैं भी कहने को था क्योंकि रिक्तगंथ की बातों से तिलिस्म का यह हिस्सा भी टूटने योग्य जान पड़ता है, (भैरोंसिंह से) इसी से मैं कहता हूँ कि इस बाग में जरा समझ-बूझ के घूमना।
भैरोंसिंह––खैर, इस समय तो मैं भी आपके साथ-साथ चलता हूँ। चलिए बाहर निकलिए।
आनन्दसिंह––(भैरोंसिंह से) तुम्हें याद है कि तुम ऊपर से उतरकर इस कमरे में किस राह से आए थे?
भैरोंसिंह––मुझे कुछ भी याद नहीं।
इतना कहकर भैरोंसिंह उठ खड़ा हुआ और दोनों कुमार भी उठकर कमरे के बाहर निकलने के लिए तैयार हो गये।
16
तीनों आदमी कमरे के बाहर निकल कर सहन में आये। उस समय कुमार को मालूम हुआ कि यह कमरा बाग के पूरब तरफ वाली इमारत के सब से निचले हिस्से में बना हुआ है, और इस कमरे के ऊपर और भी दो मंजिल की इमारत है, मगर वे दोनों मंजिलें बहुत छोटी थीं और उनके साथ ही दोनों तरफ इमारतों का सिलसिला बराबर चला गया था। दिन चढ़ आया था और नित्यकर्म न किए जाने के कारण कुमारों की तबीयत कुछ भारी हो रही थी।
जिस तरह इस तिलिस्म में पहले दूसरे बाग के अन्दर नहर की बदौलत पानी की कमी न थी उसी तरह इस वाग भी नहर का पानी छोटी नालियों के जरिये चारों ओर घूमता हुआ आता था और दस-पाँच मेवों के पेड़ भी थे जिनमें बहुतायत के साथ